Wednesday, 13 January 2016

कृपाशंकर जी 3

वर्ण व्यवस्था और अभेद दृष्टि ---- (स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी के सत्संग से संकलित)
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वर्ण व्यवस्था में अभेद दृष्टि लाने के लिये हमारे परम धन्य ऋषियों ने सबके लिए सद आचरण पर जोर दिया| चार वर्ण हैं ---- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्। चारों के लिए एक ही उपदेश है ---- सद आचरण| सभी वर्ण सद आचरण में तत्पर रहें|

(१) ब्राह्मण का कार्य है शिक्षा देना। शिक्षा वही दे सकता है जो उसको अपनाये, अपने जीवन में उतारे। आज आमरण अनशन करने वाले, हड़ताल करने वाले लोगों को कहा जाता है -- "ये शिक्षक हैं"| जब उनके अन्दर स्वयं सद्-आचरण नहीं है तो आगे दूसरे को क्या शिक्षा दे सकते हैं? इसमें सारे समाज की ग़लती है। ब्राह्मण को, शिक्षक को जो आदर देना चाहिये वह नहीं दे रहा है समाज। लेकिन क्या शिक्षक कभी सोचता है कि "जो हमारा अनादर कर रहे हैं वे हमारे ही तो पढ़ाये हुए हैं! हम क्यों नहीं उनके अन्दर वह भावना भर सके कि वे शिक्षक को उच्च दृष्टि से देखें। " जो भी जिस चीज का शिक्षण करना चाहता है उसे उस चीज को अपने आचरण में लाना पड़ेगा। जो चीज आचरण में नहीं आयेगी उसका उपदेश कभी कारगर नहीं हो सकता ।

(२) क्षत्रिय क्या करें? "सदा च रणतत्परः"| क्षत्रिय रणतत्पर होवे। रण कहते हैं युद्ध को।
परन्तु चाहे जिस युद्ध को रण नहीं कहा जाता है, जिसके अन्दर आपका आत्मा रमण कर सके उसी को रण कहा जाता है| अर्थात् जहाँ आपके सामने आदर्श स्पष्ट है कि "इस आदर्श को पूर्ण करने के लिए मुझे युद्ध करना है "| इसलिए हमारे यहाँ फौजों को तनख्वाह नहीं मिलती थी। फौजी लोगों को जमीन मिलती थी जिसकी आय से उसका सारा खर्च चलता था। युद्ध का मौका आने पर राजा के लिए लड़ते थे। कर्तव्यबुद्धि से वे युद्ध पर जाते थे, धन के लिये नहीं। जैसे बाह्मण केवल दूसरे को सिखाये, शिक्षा दे इतना ही पर्याप्त नहीं, उसका जीवन ऐसा होना चाहिए जो शिक्षा दे; उसी प्रकार क्षत्रिय रणतत्पर इसलिये नहीं हो कि तनख्वाह मिलती है वरन् हम जिसे आदर्श समझते हैं, जो हमारे हृदय में रमा हुआ है, उसके लिए युद्ध करना है, उसमें तत्पर होना है|

(३) वैश्य क्या करें? "सदा चरणतत्परः"| उसे हमेशा घूमना है । वैश्य का कार्य है जहाँ जिस चीज़ की आवश्यकता है, उस आवश्यकता को पूर्ण करना। वैश्य का उद्देश्य धन कमाना नहीं है। लोगों की आवश्यकता की दृष्टि से चीज़ों को उपलब्ध कराना उसका कार्य है। चूँकि सब लोग जहाँ चीजें उत्पन्न होती हैं वहाँ नहीं पहुँच सकते हैं इसलिए चीजें जहाँ आवश्यक हैं वहाँ पहुँचाना उसका कार्य है। आज दृष्टि आवश्यकता पूर्ण करने की नहीं है। चाहे भुखमरी बढ़ती जाये पर यदि मुनाफे पर सामान बेचकर व्यापारी अपना धन बढ़ा ले तो मानते हैं उसने विकास कर लिया! लाखों लोगों के सिर पर चाहे छप्पर न हो फिर भी एक-एक व्यक्ति चार-चार फ्लैट रखकर साठ तल्ले का मकान बना ले तो कहते हैं कि देश की उन्नति हो रही है! आवश्यकता को दृष्टि से हटाकर चाहे जितना बटोर लो, उसे उन्नति, विकास कहना बनता नहीं|

(४) शुद्र के लिए भी उपदेश है "सदा चरणतत्परः"| वह हमेशा देखे कि किसकी, कहाँ, कौन - सी सेवा आवश्यक है, उस सेवा को पूर्ण करे ।

सारी दृष्टि इस प्रकार की थी कि हमें क्या पाना है यह नहीं, वरन् हम समाज को क्या दे सकते है?

देने की भावना का उदात्त उदाहरण " राजा रघु " के जीवन में मिलता है। राजा रघु ने सर्वस्व दान कर दिया था । उसके पास केवल एक मिट्टी का सिकोरा बच गया था । उस समय एक ब्राह्मण आया पर उनकी स्थिति देखकर वापस जाने लगा। राजा रघु ने पूछा तो वह कहने लगा --- "मैं आया तो था किसी मतलब से लेकिन आपकी स्थिति देखकर माँगे बगैर अन्यत्र जा रहा हूँ"| राजा रघु ने उस ब्राह्मण से आवश्यकता पूछी तो वह बोला "मैंने गुरुजी से विद्याध्ययन कर कहा कि "आप गुरुदक्षिणा लेवें, क्या ले आऊँ आपके लिए"? उन्होंने कहा "बेटा, तुम ब्राह्मण के लड़के हो, क्या ला सकोगे? तुमने सेवा की इतना ही काफी है। मैंने कहा "नहीं जी , कुछ तो ले लो"| बार-बार कहने से गुरुजी को गुस्सा आ गया| उन्होंने कहा --- "चौदह विद्याएँ सीखी हैं तो चौदह करोड़ रत्न ले आओ"| मेरा मुँह छोटा - सा हो गया ! गुरुजी के हृदय में तुरन्त दया आ गई। कहने लगे "रघु इस समय दान कर रहे हैं, उनके पास चले जाओ। वे तुम्हें दे देगें"| लेकिन आपकी स्थिति देखकर मैंने सोचा बात करना बेकार है। रघु ने कहा "आप दो चार दिन निवास करें। आप घबरायें नहीं। आपकी व्यवस्था हो जायेगी"| उनकी व्यवस्था करने के लिए रघु सोचने लगे कि अब क्या करें? अभी-अभी इतने बड़े दान इत्यादि कर्म के लिए प्रजा से तो धन ले चुके था। आज का युग तो था नहीं कि जब इच्छा तब कर और अधिभार लगा दो! अन्त में उन्होंने निर्णय किया कि इन्द्र पर चढ़ाई करके वहाँ से धन लाकर ब्राह्मण देव को दे दिया जाये। सारी तैयारी हो गई। इन्द्र को पता लग गया| इन्द्र ने रात में ही वहाँ स्वर्ण-वृष्टि कर दी! सबेरे उठे तो सर्वत्र स्वर्ण भरा हुआ था। रघु समझ गये कि अग्निहोत्र करते हुए इन्द्र को विशेष आहुतियाँ दी थीं, उनकी कृपा से यह हुआ है।

राजा रघु ने उन ब्राह्मण ब्रह्मचारी को बुलाया और कहा -- "ये रत्न ले जा"| उसने उसमें से चौदह करोड़ ले लिये। धन तो बहुत आ गया था। वह चौदह करोड़ लेकर जाने लगा तो रघु ने कहा "यह तो सब तुम्हारे निमित्त से आया है, सारा ले जाओ"| वह ब्रह्मचारी ब्राह्मण कहने लगा "हमें चौदह करोड़ की ज़रूरत थी, हमने चौदह करोड़ ही कहा था , हम बेकार क्यों लेकर जाएँ? ज्यादा आया है तो तुम जानो, हमें जितना चाहिये उतना ही लेंगे"|

यह है सनातन धर्म जहाँ हर एक कहता है "तुम लो"| जहाँ सनातन धर्म नहीं है वहाँ सब कहते हैं "मैं लूँ"! अन्त में जब कोई निपटारा नहीं हुआ तब ऋषियों से पूछा। उन्होंने कहा "अब झगड़ा नहीं करो। यह तो चौदह करोड़ ही ले जाये। बाकी सब जमीन में गाड़ दो, आगे किसी के काम में आयेगा। राजा का भी कहना ठीक है कि ब्राह्मण के निमित्त से आया है, मैँ क्षत्रिय क्यों रखूँ इस धन को"? और ब्राह्मण भी जरूरत से ज्यादा न ले यह उचित ही है। अतःबाकी को जमीन में गाड़ दो, किसी के काम आयेगा|
यह दृष्टि बनती है सनातन धर्म की ।

जो हमारे पास है वह पर्याप्त है यह निश्चय संतोष है। यह होने पर ही जीव को साधुसमागम साधु पुरुषों का संग मिलता है। आज सब लोगों की शिकायत है कि "कहीं हमें साधु पुरुष नहीं मिलतें हैं। सब जगह चोर डकैत ही मिलते हैं, ठगने वाले ही मिलते हैं"|
शम संतोष है क्या आपके पास? ये होंगे तभी साधु पुरुष मिलेंगे नहीं तो साधु पुरुष आपको मिलने वाले नहीं हैं। क्योंकि जब तक आपके अन्दर योग्यता नहीं होगी तब तक न साधु पुरुष को आप पहचान सकते हैं न उनसे लाभ उठा सकते हैं। साधु समागम की विशेषता है कि उससे आपकी पुरुषार्थ - शक्ति का विकास होता है। असाधु पुरुष हमेशा आपके पुरुषार्थ को दबायेंगे। कोई कहेगा सब कुछ कर्म के अधीन हैं, कोई कहेगा सब कुछ "चाँस" के, यदृच्छा के अधीन है, कोई कहेगा नियति के अधीन है, कोई कहेगा प्रकृति के अधीन है, कोई कहेगा स्वभाव के अधीन है। दूसरी चीजों को कारण बतलायेंगे।साधु पुरुष वह है जो आपसे कहेगा कि "संसार में कुछ भी ऐसा नहीं है जो तुम अपने पुरुषार्थ से प्राप्त न कर सको । संकल्प की शक्ति सबसे प्रबल शक्ति है"।

(साभार : सर्वज्ञ शंकरेन्द्र (स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी) के सत्संग से संकलित) )

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