Thursday, 28 January 2016

भगवत्नाम चिंतन

नाम भगवत् पथ की साधना की आत्मा है जो निखरती जाती है । साधना या भगवत् लालसा का उदय होने पर नाम की भागीरथी का उदय होता है । पहली अवस्था जिसे प्रवर्त्तक अवस्था कहते है नाम साधना वहाँ बीज रूप में है , पहली साधना । नाम और नामी का नित्य सम्बन्ध ही है । वाचक और वाच्य अर्थ में जिस प्रकार सम्बन्ध होता है , राम का नाम अग़र जिह्वा पर है तो भगवान राम ही वहाँ है । नाम से भगवत् प्राप्ति की आशा में अर्थ होता है नाम के स्वरूप का बोध ना होना , भगवान का नाम ही भगवान है । हाँ नाम , भजन ना होता हो तो वियोग बनता है , और नाम लिया जावें तो ज़रा भी वियोग नहीँ , भगवान और नाम में तनिक भेद नहीँ बल्कि नाम का विशेष महत्व है क्योंकि नाम तो जब भी संग है जब जीव पापात्मा हो , भगवान के स्वरूप के लिए तो अन्तः शुद्धि करनी होती है , परन्तु नाम किसी तरह की अपेक्षा नहीँ रखता । बल्कि वही चित् की शुद्धि करता है । और नाम के प्रति जितनी भावना है वैसा ही नाम स्वरूप ले भी लेता है । अतः नाम ही भगवान है और सर्वत्र संग ही है , जहाँ नाम है वहीँ भगवान निश्चित अपने नाम में है ।
वृक्ष के बीज के साथ जिस तरह फल का सम्बन्ध है , उसी प्रकार भगवान के नाम का भगवत् स्वरूप का सम्बन्ध है ।
भगवान का नाम प्राकृतिक वस्तु नहीँ , यह अप्राकृत है और अचिन्त्य शक्ति सम्पन्न है अर्थात् सोचा नहीँ जा सकता नाम की शक्ति को । भगवान जिस तरह चिदानन्दमय है उनका नाम भी उसी तरह चिदानन्दमय है । परन्तु नाम में चिद् और आनन्द की अभिव्यक्ति नहीँ रहती , साधना के प्रभाव से क्रमशः यें अभिव्यक्त होते है । परन्तु चिद् और आनन्द नाम में सदा ही अवक्तभाव से रहते है । नाम अनन्त शक्तियों का भण्डार है । जाग्रत महापुरुष के श्री मुख से निकले हुए नाम की तो बात ही क्या , मेरे सरीखे अज्ञानी जीव साधारणतः उच्चारित नाम में भी पूर्ण निज शक्ति विद्यमान रहती है ।
नामदाता (गुरूवर) की शक्ति के साथ योग होने पर नाम की निजशक्ति आवरण मुक्त हो फुट पड़ती है । वैसा न हो तो वह नाम यथार्थ नाम नहीँ होता , नामाभास रूप में ही प्रकटित होता है । नाम की महिमा अनन्त है , नामाभास भी व्यर्थ नहीँ जाता , उसका भी सुफल होना अनिवार्य है ।
वस्तुतः भगवान का नाम यानि जाग्रत नाम कोई अपने बल से कर्तृत्वाभिमानपूर्वक नहीँ उच्चारण कर सकता । जिसके ऊपर नाम की कृपा होती है नाम स्वयं ही उसके कण्ठ की अवलम्बन करके ध्वनित हो उठता है । यहाँ कुछ स्पष्ट कर ने हेतु एक स्मरण बता देना चाहता हूँ , मेरी बहन के पूजनीय गुरु जी के गुरदेव सरकार यानी बहन के दादा गुरु देव प्रातःस्मरणीय अवध बिहारी जु के परम् रसिक श्री सियाजु के लाडले रसिक महाराज श्री रामहर्षणदास जी (अयोध्या) जब सभा में आते और आसन लेकर तीन बार नाम लेते , राम राम राम तो वहाँ उपस्थित सभी जन विलाप करने लगते , सब के नेत्र झर जाते । यें है नाम , जाग्रत नाम । बहन को देख आश्चर्य होता , कि वहीँ नाम हम कहे तो हमें ही व्याकुलता नहीँ और वही ही नाम सरकार कहे तो , वास्तविक नाम पूर्ण है , उच्चारण में साक्षात् अनुभूति होगी ही ।
जो स्वतः चैतन्यमय है , उसके लिए बाह्य प्रेरणा की आवश्यकता नहीँ होती , परन्तु नामाभास में उच्चारण कर्ता का कर्तृत्वाभिमान रहता है (मैं नाम ले रहा हूँ , जबकि नाम हम पर कृपा कर रहे है ) । तब भी लम्बे समय तक गुरुपदेश और आंतरिक शुद्धता के अनुसार उच्चारण करते करते नामाभास  भी किसी-किसी भाग्यवान प्रेमी जन के कन्ठ में नामरूप में परिणत हो कर अपने आप को ध्वनित करता है ।
नाम के जाग्रत होने पर उसके प्रभाव से सद्गुरु की प्राप्ति और उसके बाद सद्गुरु से इष्ट मन्त्ररूपी विशुद्ध बीज की प्राप्ति हो सकती है । बीज के क्रमविकास से चैतन्य की अभिव्यक्ति होती है और देह एवम् मन की सारी मलिनता दूर होकर सिद्धावस्था का उदय होता है । मन्त्रसिद्धि वस्तुतः भूतशुद्धि और चित्तशुद्धि के फलस्वरूप होती है । इस अवस्था में स्वभाव की प्राप्ति हो जाती है इसलिये समस्त अभावों की निवृत्ति हो जाती है । यद्यपि यह अवस्था सिद्धावस्था के अन्तर्गत मानी जाती है , परन्तु यह भगवत्भजन की प्रारम्भिक अवस्था है । माता के गर्भ से उत्पन्न मलिन देह से यथार्थ भगवत्भजन नहीँ होता । इतनी बात इसलिए कही की प्रारम्भिक अवस्था तो यें है तो हम कितने दम्भ में स्वयं को क्या क्या समझने लगते है । क्रमशः .... -- संकलन और भगवत्कृपा से सत्यजीत तृषित । जय जय श्यामाश्याम ।

Tuesday, 26 January 2016

मरा शब्द

कल रात्रि मरा शब्द की कमेन्ट सीरीज़ देखी । सभी ने गहन चिंतन दिए ।
और जो सार प्रगट हुआ वो तो यें ही था , उल्टा सीधा एक समान ।
एक और बात ।
आज कुछ परत खुली लिख भी रहा था , लेख ।परन्तु साहस न हुआ । शब्द समीक्षा नहीँ आती सो । कभी कभी अज्ञानता वरदान बन जाती है । आप परम् रसमय साधक है । आप चिंतन किये ही होंगे ।
आप लोम विलोम प्रतिलोम की विधि से परिचित होंगे ही । स्वामी जी श्री रामसुख दास जी का एक रिकॉर्ड सुना था कभी । उसमें भावो में उन्होंने कह दिया कि मैंने उल्टी गीता का पाठ किया , आप भी कर के देखें रस बढेगा । अच्छा लगेगा । वें कहे मैंने किया है । सिद्धांत से उल्टी गीता का भावार्थ करे तो सब उल्ट ही होगा , उत्तर पहले , प्रश्न बाद में । और समाधान से जिज्ञासा की यात्रा होगी । परन्तु सच में रस बढेगा । सप्तशती के नाना विधि पाठ प्रचलित है । अर्थ की दृष्टि से उन्हें लिखा जाये तो लगेगा कि सम्भवतः साधक पागल हो गया , कभी क्या कभी क्या , कोई क्रम नहीँ । योग ,ज्ञान ,तन्त्र या भक्ति बात एक ही कहते है भेद हीनता । पूर्ण श्रद्धा ।
जीवन के तीन आयाम है । जन्म मृत्यु मरण । सर्वत्र राम है तो कहीँ से भी कहो , शब्द के पीछे भावना की प्रबलता है , वही शब्दशक्ति है । सम्बोधन तो ...
और उल्टे पाठ आदि में पहले सीधे में गहन श्रद्धा हो , यहाँ गुरु भक्ति भी है कि सन्त की किसी भी बात पर निष्ठा हो तो मरा शब्द भी ईश्वरवाची हो जाता है । आज मेरी बेटी जो कि टिन वर्ष की भी नहीँ उसे मरा शब्द का अर्थ ज्ञात है , सम्भवतः उसे उसकी माला के लिए कहू तो वह मम्मी से मेरी शिकायत करेगी , देखो गलत बुलवा रहे है । और यें ही निष्ठा का खण्डन है । संसार में ऐसे बहुत से राम है जहाँ रामत्व नहीँ प्रतीत होता , वैसे राम हीन सृष्टि और तत्व ही नहीँ । फिर भी ऐसे व्यक्तित्व में स्ववाद ही होता है । और पापी से पापी मर जाएं , शत्रु भी तो हाथ जुड़ जाते है , देह मिट्टी हो चुकी पर राम मान हाथ जुड़ जाते है और होड़ लगती है , छुने की । जिसने मृत्यु में राम देख लिये वही रामायण लिख सकता है क्योंकि उसका निज जीवन रहा ही नहीँ । और राम हम बोलते है क्योंकि हमारे पास राम है । वाल्मीकि जी की कथा अवतार से पूर्व रामायण लिखने की है , शब्द होंगे तो सृष्टि होगी । सम्भवतः उनकी यात्रा उल्टी थी , और कठिन थी ।

Sunday, 24 January 2016

काल में प्रवेश

जय जय सियाराम चरणरज शरणम् !!
जय जय श्यामाश्याम चरणरज शरणम् !

एक विनय है , इस लेख को पढ़ने से पूर्व आप को वर्तमान होना होगा ! अगर आप यहाँ कहाँ है अभी तो जब समय पढ़े ! देह ही नहीँ मन भी संग हो ! अतः सविनय  निवेदन है कि कम से कम दो मिनट मौन हो जाईये .....
मौन आपको वर्तमान करता है । चित् (मन)यहाँ-वहाँ रहता है , हो सकता है अभी मैं देह से तो मन्दिर हूँ , पर चित् और कहीँ अतः पहले यहाँ होना है जहाँ वर्तमान में है ।
चित् गमन करता रहता है , और करेगा भी , बंध गया तो अवसर छुट भी जाते है । उसे सही दिशा में जाना है अतः पहले वर्तमान में हो , मान लें भीतर तो किसी मॉल में किसी वस्तु में और कहू संग चलो तो वहाँ से सीधा नहीँ जाया जा सकता क्योंकि पहले संग के लिए मिलना होगा , जिसके लिए मैं और आप पूरे हो कर गंतव्य तक जा सके । अतः वर्तमान में नहीँ कहीँ और है तो मौन हो जाएं और समय लेकर पढ़े ......

अगर समूह में वर्तमान में होना है तो "कीर्तन" सुंदर है । समूह में साधक ना होने पर मौन अभिनय हो सकता है । अतः समूह में कीर्तन से वर्तमान हुआ जा सकेगा । कीर्तन से मन स्वतः आ ही जाता है । कीर्तन आपको वर्तमान करता है अतः बड़ा दिव्य अवसर है । हमारे पास तीन काल है भुत-भविष्य-वर्तमान । और हम तीनोँ में ही रहते है , कभी भुत में कुछ तलाशते है कभी वर्तमान में कभी भविष्य में । अतः लालसा कैसी भी हो काल चाहिये , हाँ मूल रस कालातीत होने में है । काल से परे । यें अद्भुत घटना है । अगर योग है तो जो परम् सुख होगा वह वर्तमान में होगा , ऐसे ही अन्य । ईश्वर नित्य है , काल से परे । फिर भी पुराणोक्त देखें तो काल में भी है । जैसे राम नित्य है परन्तु त्रेता में अवतरित भी हुए है । अगर नित्य स्वरूप हमारा है तब तो नित्य ईश्वर स्वरूप से जब चाहो तब मिलन है , जैसे नारद आदि जी , और भगवान शिव संग नन्दी आदि जी । नित्य स्वरूप से पहले हम काल में है , कहीँ न कहीँ .... मोक्ष की लालसा भविष्यकाल ही तो है ।

कल भाई जी (पोद्दार जी) का लेख पढ़ रहा था । कृपा से दिव्य रस मिला । तब tv देखना था , परन्तु भीतर से तब जैसे सन् 50 से 60 के आस पास में हूँ , ऐसा भाव हुआ और tv के प्रति अचरज हुआ । जैसे उस समय हुआ हो । कुछ गौर किया तो लगा जैसे 2016 का स्मरण ही नहीँ । लगा भाई जी के सत्संग में ही हूँ । ऐसा क्यों हुआ , कारण उनके शब्द । अगर हम वर्तमान में हो और पहले कहे शब्दों में खो जाते है तो उस ही वातावरण को जीने भी लगते है ।
जैसे भगवान सूर्य की रश्मि एक रेखा बनाती हुई आती है वैसे ही ।
कभी फ़िल्म देखते समय भी , कुछ पौराणिक या इतिहास पढ़ कर भी उस समय के कालखण्ड में हम पहुँच जाते है और जैसे ही कोई बाहर से विचलित करें तो लगता है वर्तमान में क्यों आ गए ।
प्रत्येक शब्द का निश्चित काल है ,फेक्वेंसी है । एक कोड है और कोई भी लेख पुस्तक या ऑडियो हमें अपने मूल समय में ले जा सकता है ।
इसी विज्ञान के विस्तार से हम फोन पर बात कर सकते है । ब्रह्माण्ड में इतने शब्द होने पर भी सही कोडिंग से कहीँ भी संवाद हो सकता है । अगर अपनी ऊर्जा का स्तर तीव्र है तो बिना शब्दों के भी अप्रत्यक्ष रह आंतरिक भाव समझे जा सकते है ।
आज इस वक़्त आप कुछ लिख लें , तारीख़ सहित और उसे फिर दस दिन या महीने भर बाद स्वयं ही सुने । आप उस समय लिखें जाने वाले समय के एहसास को पायेगें ।
कई पद और शास्त्रों , मन्त्रों को उनके मूल स्वरूप निश्चित राग में ही गाने पर जोर दिया जाता है । सही तरीके से हम उसे निभाए तो स्वतः किरण मय हो वहीँ स्वयं को पायेगें ।
शब्द जोड़ता है । समस्त आवरण में सूर्य रश्मियां है । और हम अपनी रश्मी को ना रोकें तो वह कही भी जा सकती है ।
एक घटना का मुख्य रूप से निवेदन है , परम् दिव्य तत्वबोधि भक्त पं गोपीनाथ कविराज जी की जप माला टूट गई उस समय वें अपने दिव्य गुरु जी योगिराज विशुद्धानन्द जी परमहंस जी के नित्य संग में अनेको दिव्य दर्शन कर चुके थे । माला शास्त्रीय ढंग से गुंथी जा सके इस हेतु बिखरे रुद्राक्ष के दाने और रेशम को लेकर बाबा के पास गए , उनसे प्रार्थना की । उन्होंने रुद्राक्ष के दानों को और रेशम को गोमुखी में रखकर उसे अपनी मुट्टी में भींच लिया । फिर दो तीन बार उस पर हाथ फिराकर गोमुखी उन्हें दे दी । ऐसा करने में 3 से 4 सेकण्ड से अधिक समय ना लगा । कविराज जी ने गोमुखी से माला निकाल देखी तो शास्त्रोक्त विधि से सुंदर गुंथी माला मिली । सुमेरु , गाँठे सब विधि से केवल 3 सेकण्ड में । पूछने पर गुरु जी ने कहा यें वायुविज्ञान का कार्य है । तुम जिसे अल्प समय कहते हो , वह वास्तव में अल्प नहीँ । काल में सूक्ष्म स्तर में चले जाने पर उसी में दीर्घकाल का भी कार्य हो जाता है ।
इस तरह सूक्ष्म प्रवेश हो सर्व काल में , लीला के चिंतन में नाम के सुमिरन में सूक्ष्म स्तर तक जुड़ जाया जाएं तो युगों की दुरी शीघ्र ही लगेगी । इस तरह अगर प्रत्येक दिन को वर्ष समान जीना आ जाए तो काल सूक्ष्म हो जाएगा । मान लें 3 दिन में कोई काम होने को है , 3 दिन बाद भगवान मिलेंगे तो वेदना अगर 3 दिन 3 मिनट में हुई तो काम हो जाएगा । या वेदना 3 दिन की 3 साल में निभी तो समय अधिक अनुभूत् होगा ।

आज मूल विषय नहीँ हो पा रहा ... कभी । फिर भी मान लीजिये
हम चिंतन करें कि नन्दलाल ने गोवर्धन को उठाया हुआ है सन्मुख सखियों संग श्री राधा बैठी है और वें मुस्कुरा रहे है और राधा जु को निहारने में खो ही गए है ।
अब इन शब्दों को पढ़ पहले जहाँ शब्द उत्पन्न हुआ वहाँ आपकी रश्मि आएगी फिर यहाँ से दर्शन तक जाएंगी । इस तरह गहन आंतरिक सम्बन्ध हो तो संग भ्रमण हो सकता है । जैसे हम रामचरित के आश्रय से राम तक जाते है । पहले शब्द अपनी उत्पत्ति फिर लीला दर्शन तक , यहाँ जिन्हें तुलसीदास जी से सहज आश्रय प्राप्त होगा वह वैसे ही निकटता से लीला के दर्शन कर सकेगा । स्वयं के प्रयास से कठिन होगा , क्योंकि यहाँ शब्द वही होने पर भी भिन्न दर्शन बनेगा । जैसे नित्य एक सी चाय पीने के लिए दूध आदि समान चाहिए और बनाने वाले भी समान ही हो , अगर अलग व्यक्ति बनाएगा तो ताप कम ज्यादा होने से रासायनिक क्रिया बदल जायेगी । अतः आश्रय से दर्शन सहज होता है । यही कारण है कि सन्तों ने भगवत् मिलन सहज कहा । रामजी के लीला दर्शन के लिए हमे त्रेता में होना होगा , और कृष्ण जी के लिए द्वापर , और बुद्ध के लिए कलयुग में ही , बुद्ध निकट समय में है तो भीतर दूर नहीँ जाना होता , और किन्हीं बौद्ध भिक्षुक का आश्रय हो तो और सहज होगा । चैतन्य महाप्रभु आदि रसिकाचार्य के आश्रय से कृष्ण लीला सहज होती है वरन् भजन मयी तप को द्वापर तक जाना हो । बिना आश्रय कुछ साधक कृष्ण चरित्र में भगवत् गीता के आश्रय से वहाँ तक पहुँचते है । परन्तु फिर ज्ञानमय हो ब्रजमाधुर्य से वंचित रह जाते है । काल की दुरी नापना ही तप है , प्रतीक्षा है । सन्त आश्रय इसे सहज करता है ।
इस विषय का जैसा दर्शन हुआ , वैसा निरूपण ना हुआ क्योंकि तब कृपामय आवरण था और अब केवल स्मृति अंश । परन्तु इस तरह यात्रा की जा सकती है , और हम करते ही है , संसार में कई बार बचपन के चित्र को देख बचपन जी उठता है । भविष्यवेत्ता भी सटीक साधन सूत्रो से भविष्य नाप और माप कर दर्शन करते है , उस समय वें हमारे भविष्य में ही तो खड़े होते है ।
आपने चाबी वाली कलाई घड़ी भीतर से को देखा है । देखना । फिर नवग्रह के खगोलीय चित्रों के संग चाबी वाली घड़ी को समीप रख देखना । दीवाल घड़ी को भी भीतर से देखना । अंतरिक्ष ईश्वर की इस सृष्टि के कालगणना के यंत्रो से सजा है । यन्त्र है ग्रह , कुछ बड़े । ऐसे कई अंतरिक्ष और यन्त्र है ईश्वर के ।
उसी आधार पर ज्योतिष आदि है । योगी जन अपने पिछले जन्मों को देख सकते थे । एक सीधी रश्मि(किरण) की तरह मन कही भी जाता है । और इसी को ध्यान से , साधना से नियंत्रित कर सदा अपने इष्ट चरण तक ध्यान किया जा सकता है ।
जब भागवत् पढ़ते है तब मन सीधा उन ही परिवेश में होता है , भागवत् कथा सुनकर वहीँ जहाँ वाचक स्वयं पहुँचा हो तो ,कभी भगवान की लीला कभी सन् 2016 कभी 2020 की कहने पर एक रूप रस नहीँ बन पाता और आश्रय लेने पर भी दर्शन नहीँ बन पाते । जो भगवत् चरण या लीला का दर्शन कर रहा होगा वह तत्काल वर्तमान ना होगा , फ़िल्म से वर्तमान होना पीड़ादायक है , तो लीला का विषय तो दिव्य है । और ऐसी स्थिति में सत् शब्द के श्रवण से वैसी सृष्टि सबमे दृश्य होगी । परम् रसिक सन्त के लीलात्मक ग्रन्थ से भी दर्शन दिव्य बनेंगे और वही अगर कोई व्याख्याता आदि के ग्रन्थ हो उनमें भगवत् दर्शन ग्रन्थ की रचना में ना बने तो सुंदर शब्द भी कहीँ नहीँ ले जायेंगे । आगे हम सूर्य विज्ञान और गुरु तत्व की व्यापकता पर भी गहनतम बातें करेगें , जब ऐसा प्रकाश होता है तब लिखा नहीँ जा सकता , वो समय रसवर्षा के स्नान का होता है ।  क्रमशः ....

Thursday, 21 January 2016

प्रारब्ध पर कृपालु जी महाराज

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  प्रारब्ध क्या होता है ?

🌹भगवान् हमारे अनंत पुण्य व अनंत पापों में से थोडा-थोडा लेकर हमारे किसी एक जन्म का प्रारब्ध तैयार करते हैं और मानव जीवन के रूप में हमें एक अवसर देते हैं ताकि हम अपने आनंद प्राप्ति के परम चरम लक्ष्य को पा लें।

प्रारब्ध सबको भोगना पड़ता है।

भगवद् प्राप्ति के बाद जब कोई जीव महापुरुष बन जाता है,
तब भगवान् उसके तमाम पिछले जन्मों के एवं उस जन्म के भी समस्त पाप-पुण्यों तो भस्म कर देते हैं, लेकिन वे उसके उस जीवन के शेष बचे हुए प्रारब्ध में कोई छेड़छाड़ नहीं करते।
इसका अभिप्राय यह है कि भगवान् को पा चुके मुक्त आत्मा संतों/भक्तों को भी अपना उस जन्म का पूरा प्रारब्ध भोगना ही पड़ता है।
उसमें इतना अंतर अवश्य आ जाता है कि अब वह नित्य आनंद में लीन रहने से किसी सुख-दुःख की फ़ीलिंग नहीं करता। लेकिन फिर भी एक्टिंग में उसे सब भोगना पड़ता है।

किसी के प्रारब्ध को मिटाना भगवान् के कानून में नहीं है।

वे लोग बहुत भोले हैं, जो यह समझते हैं कि अमुक देवी जी, अमुक बाबा जी अपनी कृपा से मेरे कष्ट को दूर कर देंगे। या मुझे धन, वैभव, पुत्र आदि दे देंगे।

जो प्रारब्ध में लिखा होगा, वह नित्य भगवान् को गालियाँ देने से भी अवश्य मिलेगा।
जो प्रारब्ध में नहीं लिखा होगा, वह दिन-रात पूजा पाठ करने से भी न मिलेगा।

भगवान् की भक्ति करने से संसारी सामान नहीं मिला करता, जीव के प्रारब्ध जन्य दुःख दूर नहीं होते, बल्कि भक्ति से तो स्वयं भगवान् की ही प्राप्ति हुआ करती है।

यह बात अलग है कि कोई मूर्ख अपनी भक्ति से भगवान् को पा लेने पर भी वरदान के रूप में उनसे उन्हीं को न माँगकर संसार ही माँग बैठे।

यहाँ यह बात भी विचारणीय है कि जिसको भगवान् की प्राप्ति हो चुकी, उसके लिए प्रारब्ध के सुख-दुःख खिलवाड़ मात्र रह जाते हैं।

...........जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।
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Wednesday, 20 January 2016

वह कहाँ गया होगा ........ कोई सुनता होगा

वह कहाँ गया होगा ?
जब यह संसार किसी को पराया समझनें लगे .....
जब अपने पराये से लगते हों ......
जब सभी सहारे टूटते दीखते हों ......
जब सभी राह कांटो भरी दिखती हों .....
तब वह ब्यक्ति क्या करता है ?
या तो वह खुदकशी करके अपनें को समाप्त कर देता है या ....
बैरागी के कपडे डाल कर काशी - प्रयाग में भीख माँगता है ।
क्या बैरागी के कपड़ों को अपनानें से वह बैरागी हो पाता है ? जी नहीं .....
भागा हुआ ब्यक्ति कभी भी चैन से नहीं रह पाता , ज़रा इस बात पर
जिस से भागोगे प्यारे वह आप का पीछा करता ही रहेगा , चाहे वह हिमालय हो या अपना घर ।
अब आगे -------
सुख का जहां अंत होता है , क्या वहाँ से दुःख का प्रारम्भ नहीं होता ?
दुःख का जहां अंत होता है क्या वहाँ से सुख का प्रारम्भ नहीं होता ?
अब सोचिये ज़रा -------
जहां सुख - दुःख मिलते हैं अर्थात वह रेखा जो सुख- दुःख को अलग करती करती है , वह क्या है ?
वह क्या .........
गीता का सम भाव ॥
गीता का सम भाव वह है .......
जहां से एक ओर प्रभु का आयाम होता है और ----
दूसरी ओर भोग संसार का .....
वह ब्यक्ति जो चला था वह संसार की ओर तो अपना रुख अब कर नहीं सकता ,
उसका रुख जरुर हुआ होगा प्रभु की ओर , और यदि ......
वह आत्म ह्त्या किया होगा तो वह .......
निहायत कमजोर ब्यक्ति रहा होगा ॥ 
*****    *****
बहुत से अरमान रहें होंगे , उसके दिल में
बाबू ! यह संसार है , यहाँ सब कुछ मिलता है ........

यहाँ ऐसा कोई न होगा जिसके कोई अरमान न हों , बिना अरमान का क्या कोई जीवन है ?

यहाँ कोई गणेशजी की पूर्ति बना कर अपना अरमान पूरा करना चाहता है ,

यहाँ कोई दारु बना कर अपनें अरमान पुरे करना चाहता है ।

यहाँ कोई किसी को अपना खून दे कर अपना अरमान पूरा करता है तो ...

कोई किसी का खून पी कर अपना अरमान पूरा करता है ॥

यहाँ कोई किसी की किडनी चुरा कर अपना अरमान पूरा करना चाहता है ,

कोई अपनी किडनी दे कर अपना अरमान पूरा करता है ,
क्या क्या देखोगे , यहाँ .....

यहाँ सब कुछ देखनें को है लेकीन दिखता वही है जो मन देखना चाहता है ॥

अरमान तो अरमान ही होता है और अरमान का अर्थ है ......

वह जो हमें तो समाप्त करदे लेकीन स्वयं बना रहे ,
बुद्ध कहते हैं ......
कामना दुस्पुर होती हैं अर्थात कामना वह जो कभी समाप्त न हो ।
अरमान जब मनोरंजन का साधन सा दिखे तो समझना मार्ग सही है और .....
अरमान जब माथे के पसीनें को सूखनें न दे तो समझना , मार्ग नरक की ओर जा रहा है ॥
अरमान एक तरफ प्रभु की ओर जाता है और ....
दूसरी ओर नरक की ओर , आप को कहाँ जाना है ?

*****
ऎसी बात कौन कह सकता है ?

मैं , लगता है कुछ भ्रम में था ........
अपना झोपड़ा एक कदम पहले बना लिया था ......
लेकीन अब ------
उसमें ही बसेरा करूंगा , जिस में सभी जाते हैं [ मौत ] ....
आप सोचना की ऐसी बात कौन कह सकता है ?

बाबा कुछ दिनों से बीमार चल रहे थे , उनके प्रेमी लोग उनकी खूब सेवा किया ।
बाबा चलते - चलते बोले -- आप सब को कैसे धन्यबाद करूँ , आप लोग तो मेरे लिए
निराकार प्रभु के साकार रूप हैं , मैं तो आप सब का धन्यबाद ही कर सकता हूँ , और मेरे हाँथ में
है भी क्या ?

उसनें अच्छी सीख दिया , जो कुछ मैं का अंश बचा था , वह सब उसनें निकाल दिया ,
ऐसा लगता है , अब पता चला की
मैं भ्रम में था और जिस जगह अपना झोपड़ा बना रखा था , वह जगह एक कदम पीछे थी ,
उस के आश्रम से जहां सभी को जाना ही पड़ता है चाहे होश में या बेहोशी में ,
यहाँ यही एक सत्य दिखता है ।
जन्म , जीवन और मृत्यु - तीन अवस्थाएं हैं जिनके होश के माध्यम से प्रभु में पहुंचना संभव है ।
जन्म का तो पता न चला , जीवन लगता है भ्रम में कहीं खो गया अब तो मृत्यु ही शेष है जिसके
माध्यम से प्रभु को जाना जा सकता है , और यदि यह मौक़ा भी हाँथ से निकल गया तो समझो
लम्बी यात्रा से गुजरना होगा ॥

अब तो अपना झोपड़ा एक कदम आगे सरकाना पड़ेगा जिस से उसके माध्यम से अपनें को भुला कर
प्रभु की हवा में रहा जा सके ॥
मौत प्रभु का प्रसाद है , जो सम भाव से सब को मिलता है चाहे कोई
चाहे या न चाहे ॥
मृत्यु में कुछ तो विशेषता है , जो किसी भी स्तर के जीवन को एक समान धरातल पर ला खड़ा करती है ........ सम्भवतः कोई अवसर है ।
***

और क्या देखा ?

बुद्ध अपनें भिक्षुकों को दीक्षा पूर्व छ: माह ले लिए मरघट पर भेजते थे .......
रात और दिन भिक्षुक को मरघट पर ही रहना होता था ...........
आखिर वह भिक्षुक वहाँ क्या अनुभव करता रहा होगा ?

मरघट एक ऎसी जगह है जहां एक दिन सब को जाना ही होता है चाहे वह .......
राजा हो
रंक हो
अमीर हो
गरीब हो ॥
जबतक तन में प्राण है , कौन मरघट पर अपना झोपड़ा डालना चाहता है ?
जीवन का प्रारम्भ चाहे महल से हुआ हो या पगडंडी से हुआ हो .......
जीवन का प्रारंभ चाहे पांच सितारा होटल की पार्टी से हुआ हो , या
भिक्षा में मिले जूठे भोजन से हुआ हो ----
सब को एक दिन मरघट पर अपनी यात्रा समाप्त करनी ही पड़ती है ॥
मौत एक परम कम्युनिस्ट है जिसकी निगाह में सब एक हैं ,
चाहे वे .....
राजा हों -----
भिखारी हों ----
प्रधान मंत्री रहें हों .....
या चोर रहे हों ॥
मौत एक परम सत्य है
लेकीन ------
कोई इस की चर्चा करना नहीं चाहता , आखिर इस से इतनी नफरत क्यों ?