गीता तत्व 8
अर्जुन का प्रश्न - 6
अर्जुन गीता-श्लोक 6.33-6.34 के माध्यम से जानना चाहते हैं ..... मन जिसकी गति वायु से भी अधिक है , उसे शांत कैसे करें ?
परम श्री कृष्ण अपनें श्लोक 3.37 में कहते हैं ....यह काम अभ्यास एवं वैराग्य से सम्भव है । गीता में परम श्री कृष्ण के पूरे 556 श्लोकों का सीधा सम्बन्ध मन - साधना से है जिनसे यह पता चलता है - अभ्यास क्या है और बैराग्य क्या है । गीता में श्री कृष्ण के सभी उत्तर ऐसे हैं जिनसे भ्रम दूर नहीं होता अपितु भ्रम और गहरा जाता है । प्रोफेसर अलबर्ट आइंस्टाइन कहते हैं---जो बुद्धि प्रश्न बनाती है उस बुद्धि में उस प्रश्न का हल नहीं होता और यही बात गीता - सूत्र 2.41 भी कहता है।
अब हमें गीता - श्लोक 6.37 के बारे में देखना चाहिए । अभ्यास एवं बैराग्य दो अलग- अलग कर्म नहीं हैं ,साधना में अभ्यास के फल के रूप में बैराग्य मिलता है जो प्रभु का प्रसाद है । बैराग्य का अर्थ यह नही है की घर से भागकर किसी तीर्थ में पहुँच कर सन्यासी वस्त्र को धारण करलेना । आपनें कबीर की इस पंक्ति को जरुर सूनाहोगा----मन न रंगाये , रंगाये योगी कपडा और यही बात गीता में श्री कृष्ण भी कहते हैं।
गीता-सूत्र 2.52 में परम श्री कृष्ण कहते हैं---मोह के साथ वैराग्य नहीं मिलता लेकिन यह बात अधूरी है , पूरी बात है ...राजस-तामस गुणों से साथ बैराग्य नहीं मिलता । ध्यान , योग तथा साधना क्या हैं ?
परमात्मा से जुडनें के सभी माध्यमों से केवल एक काम होता है -गुणों के तत्वों की पकड़ से प्रभावित न होना ।
जब भोग- तत्वों की पकड़ कमजोर पड़ जाती है तब वह योगी धीरे-धीरे बैराग्य की ओर कदम बढाता है ,बिना अभ्यास बैराग्य नहीं मिल सकता , कई सौ सालों में कोई एक ऐसा भी पैदा होता है जो जन्म से बैरागी होता है जैसे आदि शंकराचार्य ।
गीता-श्लोक 3.37 को ठीक-ठीक समझना ही बैराग्य की ओर खीचनें लगता है ।
अर्जुन के इस प्रश्न का ठीक-ठीक उत्तर गीता-श्लोक 6.26 में दिया गया है - श्लोक कहता है ...परमात्मा को
छोड़ कर मन अन्यत्र जहाँ-जहाँ जाता है उसको वहा-वहा से खीच कर परमात्मा पर ले आनें का अभ्यास , मन को शांत करता है लेकिन यह काम इतना आसान भी नहीं ।
अर्जुन का प्रश्न - 7
अर्जुन अपनें सातवें प्रश्न में पूछते हैं .....श्रद्धावान पर असंयमी योगी जब योग खंडित स्थिति में शरीर छोड़ता है तब उसकी क्या गति होती है [ गीता-श्लोक ...6.37- 6.39 तक ] ?
उत्तर के लिए आप देखें गीता के निम्न श्लोकों को -----
2.42- 2.46 , 2.3 , 2.37 , 6.40- 6.47 , 7.1- 7.30 , 8.6 , 9.13 - 9.15 , 9.20 -9.22 , 12.3 - 12.4 ,
13.5 - 13.6 , 13.19 , 14.3 - 14.4 , 15.8 , 16.1 - 16.3
अर्जुन इस प्रश्न के पहले श्री कृष्ण के 556 श्लोकों में से 206 श्लोकों को सुन चुके हैं । अर्जुन को अब ऐसा लगनें लगा है --वे असंयमी योगी की तरह हैं और उनका योग खंडित होता दिख रहा है । श्री कृष्ण [ गीता..6.40 ] के माध्यम से कहते हैं ---परमात्मा केंद्रित ब्यक्ति की कभी दुर्गति नहीं होती । योग एक अंतहीन यात्रा है ।
योग खंडित योगी दो प्रकार के हो सकते हैं ; एक वे हैं जो अभी बैराग्यावस्था तक नहीं पहुंचे होते और उनका योग खंडित हो जाता है तथा इस दशा में उनके शरीर का अंत हो जाता है , ऐसे योगी कुछ समय स्वर्ग में निवास करते हैं और फ़िर किसी अच्छे कुल में जन्म ले कर साधना में लग जाते हैं । दूसरी श्रेणी में ऐसे योगी आते हैं जो बैराग्यावस्था में पहुंचनें के बाद योग से नीचे गिर जाते हैं और इस स्थिति में उनका शरीर छूट जाता है । इस श्रेणी के योगी स्वर्ण में नहीं जाते सीधे किसी योगी कुल में जन्म लेकर जन्म से बैरागी होते हैं , लेकिन ऐसे योगी दुर्लभ हैं ।
गीता स्वर्ग प्राप्ति को परम नहीं मानता इसको भी भोग का एक माध्यम कहता है लेकिन श्री कृष्ण [गीता श्लोक 2.3 तथा 2.37 ] में स्वर्ग का प्रलोभन दे कर अर्जुन को कहते हैं की तूं युद्ध्य कर ।
गीता कहता है --जैसे यदि किसी को जब बड़ा तालाब मिल जाता है तब उसका जितना संबंध उस छोटे
तालाब से रह जाता है उतना ही सम्बन्ध एक गीता प्रेमी का वेदों से होता है क्योंकि भोग का समर्थन वेदों में है।
गीता श्लोक 7.4 - 7.6, 13.5 - 13.6 , 14.3 - 14.4 तथा 13.19 ऐसे श्लोक हैं जो प्रोफेसर आइंस्टाइन को भी प्रिय थे और इनमें गीता का सांख्य - योग पूर्ण रूप से देखनें को मिलता है । यहाँ गीता कहता है--आत्मा-परमात्मा , अपरा प्रकृति के आठ तत्त्व तथा चेतनमय परा प्रकृति के योग का परिणाम भूत हैं ।
परमात्मा से परमात्मा में तीन गुणों का एक माध्यम है जिसको माया कहते हैं , माया में दो प्रकृतियाँ हैं । जब स्थिति ऐसी उत्पन्न होती है की माया [ तीन गुन + दो प्रकृतियाँ ] एवं परमात्मा का फ्यूजन होता है तब जीव का निर्माण होता है ।
सत्यजीत तृषित
=====ॐ=====
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