वृत्तासुर >>>>
त्रासदायक
वृत्ति ही वृत्तासुर है ।
वृत्ति अन्तर्मुख हो जाय ,
तभी जीव ईश्वर से मिल
सकता है ।
किसी भी अवस्था मेँ
ईश्वर से विभक्त
नहीँ होना चाहिए ।
वृत्ति की बर्हिमुखता दुःखद
है , त्रासदायक है । यह
देवोँ को भी त्रास देती है
।
मन को स्थिर रखने के लिए
आँखो को भी एक स्थान पर
स्थिर रखना होगा ।
वृत्ति के बर्हिमुख होने
पर कथा मेँ या मन्दिर मेँ
दर्शन करने मेँ आनन्द
नहीँ मिल पाता ।
बहिमुर्खीवृत्ति
को ज्ञानरुपी वज्र से
नष्ट किया जाय ।
ज्ञान प्रधान बल है ।
इसके सहारे विषय
वृत्तियोँ को , आवरण
वृत्तियोँ को (वृत्तासुर
को ) मारने से
ही इन्द्रियो के
अधिष्ठाता देवो को शान्ति मिलेगी ।
ब्रह्मनिष्ठा ऐसी अचल
होनी चाहिए कि अन्य
विषयोँ मेँ रमने का मन
ही न हो । मनुष्य
विषयो मेँ आनन्द
खोजता है इसीलिए वह
नही मिल पाता । प्रभु
भजन मेँ वज्र समान अटल
निष्ठा रखना होगा ।
दधीचि ब्रह्मनिष्ठ थे
अतः उनकी अस्थियोँ मे
भी दिव्यता थी ।
"एक करोड़ जप करने पर
माला मेँ
दिव्यता आती है ,
चेतना आती है । मंत्र ,
माला , एवं
मूर्ति कभी नही बदलना चाहिए
। प्रत्येक मन्त्र मेँ दिव्य
शक्ति है । जो भी मंत्र गुरु
द्वारा प्राप्त हो उसमेँ
दृढ़ निष्ठा रखकर जप
करना चाहिए । जिस
स्वरुप मेँ रुचि हो उसमेँ
पूर्ण निष्ठा रखते हुए
उसकी मूर्ति का पूजन
किया जाय बदला न जाय
।"
इन्द्र के हाथ के वज्र मे
नारायण का दर्शन
वृत्तासुर को हुआ
क्योँकि वह पुष्टि भक्त
था । वृत्तासुर पुष्टि भक्त
अर्थात् अनुग्रह है ।
लौकिक
सुखो की प्राप्ति का प्रयत्न
सफल न हो पाए
तो मानो कि ठाकुरजी कृपा की है ,
परमेश्वर जिस किसी जीव
पर अधिक कृपा करते है .
उसे लौकिक सुख नहीँ देते ।
लौकिक सुख मिलने पर
जीव ईश्वर से विमुख
हो जाता है ।
Sunday, 29 November 2015
रहस्य भाव 54
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