Tuesday, 24 November 2015

रहस्य भाव 49

।।ऊँ श्री परमात्मने नम:  ।।

यदि तुम में अभ्यास करने की शक्ति न हों तो तुम अपने कुछ धर्म और कुलाचार विधिपूर्वक करो  । जो कर्म करने योग्य हो उन्हें करते रहो और जो अयोग्य हो   उन्हें न करो  । इस प्रकार का आचरण करने की छूट है किन्तु शरीर  वाणी तथा मन से जो कर्म करते हो उसके संबंध में यह मत कहो की ये कर्म मैंने किये है अपना जीवन परमात्मा के साथ एक रूप कर दो । हमारे मन से कर्ता भाव दूर हटा कर रखना चाहिए। तुम जो जो कर्म करते हो वे कम है या अधिक है  इसका विचार न कर  एक निष्ठ हो कर उन्हें मुझे अर्पित कर दो  । इससे शरीर छूटने से पहले और शरीर छोड़ने के बाद भी तुम मेरे साथ रहोगे   । गीता  १२\१०
जिसके मन में दूसरों के प्रति किसी प्रकार का द्वेष भाव नहीं है  जिसमें अपने पराये का भेद भाव नहीं है  जो प्राणी मात्र के प्रति समान रूप से मित्रता का भाव रखता है और सब पर समान रूप से कृपा करता है  जिसे सुख दुख का विचार कभी कष्ट नहीं देता है  जो संतोष को अपने गोद में खिलाता हैं जो सहज आनंद में निमग्न रहता है जो अपने अंत करण को अपने अधीन रखता है  जिसका निश्चय सदा अटल रहता है  ऐसी योग संपदा प्राप्त कर जो पूर्णता को प्राप्त कर चुका है और जो मन बुद्धि मुझे अर्पित कर देता है जो मेरी प्रेम पूर्वक भक्ति में रम जाता है वही भक्त है योगी है मुक्त है  । वह मुझे प्राणों से भी अधिक प्यार है  ।
जय जय श्री राधे राधे राधे राधे राधे राधे

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