भवाटवी का अर्थ
परीक्षित को समझाते हुए शुकदेव जी वोले - हे राजन !
इस संसार रुपी वन मेँ जीव धनोपार्जन मेँ लगे वणिकोँ के समान है । जो प्रभु माया से संसार मार्ग मेँ पतित होते हैँ । यह संसार मार्ग अत्यन्त दुर्लभ है । जो देहको आत्मा मानते है , उनके गुणोँ के विभाग से प्रत्येकजन्म मेँ शुभ अशुभ कर्म मिलजाते हैँ उनके प्रभाव से विभिन्न प्रकार के देहोँ कीरचना होने के कारण संयोग वियोग आदि वाला संसार होता है । इस संसार रुपी वन मेँ अपने कर्मो के कारण चोर रुपी इन्द्रियाँ है । यही चोर रुपी इन्द्रियाँ मनुष्य द्वारा कमाये हुए धनका विपरीत मार्गो मे अपव्ययकरती हुई हर लेती हैँ । किन्तु विषय भोग मे लगे रहने वाला मनुष्य उन चोर इन्द्रियो की करतूतो को जाननही पाता । जिस प्रकार किसीखेत मे प्रतिवष् हल जोता जाए तो उस खेत का बीज नष्ट नहीँ होता वरन बीज वपन के समय तृण लता गुल्म आदि के उपजने से दुर्ग के समान नष्ट हो जाता है । इसी प्रकार गृहस्थाश्रम को समझे । इसमेँ कर्मो की उपज होती है यह कर्मो का दुर्ग आश्रमरुप है । जैसे कर्पूर पात्र से कर्पूर निकाल ले तो भी उसकी गन्ध रहती है उसी प्रकार वासना के बने रहने से कर्म छूट नहीँ पातेवरन् बारम्बार उत्पन्न होते है ।
" पंचतत्व के देह मेँ करे आत्म अनुमान ।
बन्धन मे जकड़े रहेँ सत्य जगत को जान ।।"
Tuesday, 17 November 2015
रहस्य भाव 40
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