Wednesday, 11 November 2015

रहस्य भाव 38

भगवान श्रीकृष्ण की आठ पटरानियाँ थीँ । अष्टधा प्रकृति ही आठ पटरानियाँ हैँ । ईश्वर इन सभी प्रकृतियोँ के स्वामी हैँ । ये प्रकृतियाँ परमात्मा की सेवा करती हैँ ।
" भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।" (गीता 7/4 )!!
  जीव प्रकृति के अधीन है । ईश्वर प्रकृति के अधीन नहीँ हैँ। जीव अष्टधा प्रकृति के वश मे आ जाता है , जबकि ईश्वर उनको अपने वश मेँ करते हैँ । प्रकृति अर्थात् स्वभाव । स्वभाव के अधीन होने के बदले स्वभाव को प्रकृति को वशीभूत करने वाला जीव सुखी हो जाता है , मुक्त हो जाता है ।
प्रकृति और प्राण साथ साथ ही जाते हैँ । फिर भी यदि जप , ध्यान , सेवा , स्मरण , सत्संग . सत्कर्म किया जाय , सद्ग्रन्थोँ का अध्ययन किया जाय तो स्वभाव सुधर सकता है । सत्संग का अर्थ है -- कृष्ण भक्तो का , साधु सन्तो का . और सद्ग्रन्थ का संग ।
सत्संग और भक्ति दोँनो एक दूसरे पूरक हैँ । सत्संग करने वाला यदि परमात्मा का भजन नहीँ करेगा तो उसका सत्संग निरर्थक ही रहेगा । पत्थर नर्मदाजी मेँ हमेशा स्नान करता रहता है फिर भी वह पत्थर ही बना रहता है । इसी प्रकार कई मनुष्य कथा श्रवण तो करते हैँ किन्तु भक्तिमय न हो पाने के उनका जीवन सुधर नहीँ पाता है । पहले अपने मन को सुधारो फिर जगत को सुधारो । अपने चारित्र्य से यदि अपनी आत्मा को सन्तोष मिले . तभी मानो कि तुम्हारा स्वभाव सुधरा है। कथा श्रवण करने पर श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम न जागे , पाप की ओर घृणा न जागे , धर्म की ओर अभिमुखता न हो पाए तो मान लो कि तुमने कथा सुनी ही नहीँ है । कथा कहती  पापकर्मो का त्याग करो . और प्रभू से प्रेम बढ़ाओ । कथा सुनकर भगवान से ही सम्बन्ध बनाये रखो ।।

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