Sunday, 1 November 2015

श्री शरणानन्द जी का भाव

सन्तवाणी
श्रद्धेय स्वामीजी श्रीशरणानंदजी महाराज
असत् के संगसे अकर्त्तव्यकी उत्पत्ति और उसके त्यागसे
कर्त्तव्यकी अभिव्यक्ति स्वत: होती है । विवेक-
विरोधी कर्म अपना जाना हुआ असत् है । उससे ही
साधकके जीवनमें अकर्त्तव्यकी उत्पत्ति हुई है ।
अकर्त्तव्यकी उत्पत्तिमें ही कर्त्तव्यकी विस्मृति
निहित है । कर्त्तव्यकी विस्मृतिसे ही अकर्त्तव्य
पोषित होता है । कर्त्तव्यकी स्मृति जाग्रत करनेके
लिए विवेक-विरोधी कर्मका त्याग अनिवार्य है ।
विवेक-विरोधी कर्मके साथ-साथ किया हुआ
आंशिक कर्त्तव्य-कर्म साधकको मिथ्या अभिमानमें
ही आबद्ध करता है । इस दृष्टिसे असत् का त्याग
किए बिना आंशिक कर्त्तव्य भी अकर्त्तव्यके रूपमें
ही परिणत हो जाता है । अत: कर्त्तव्य-कर्मके
आरम्भसे पूर्व विवेक-विरोधी कर्मका त्याग अत्यन्त
आवश्यक है ।

यहाँ बहुत सुंदर बात कही है ।
सत का ज्ञान न होना असत है । आज जीव असत से ही बंधा है । सत का बोध नही ।
देहाभिमान । देहवाद । असत है ।
असत में निष्ठा । क्षणभंगुर से ममता । यें ही असत् है । सत का बोध ही असत का नाश कर सकता है । आत्म रूपी सत् को जानना । स्वबोध । और स्व बोध से बेहतर है कृष्ण बोध । क्योंकि ख़ुद को जान खुद का ध्यान लगाना यूँ है जैसे विधवा का ख़ुद के लिए सृंगार । और भगवत् ध्यान है नव वधु का श्रृंगार । जगतपति हेतु ।
अकर्तव्य कहे महाराज जी ।
मूल ईश्वरत्व के लक्ष्य से भटकना ।
जब स्वरूप बोध न होगा ।
क्योंकि आत्मा का कर्तव्य तो परमात्मा ही है ।
जगत में भगवत् भाव रख कर भगवतांश भगवत् स्वरूप में ही मिले । न की प्रकति और देह को सत माने । सत वही है जो सर्वव्यापक सत्य नित्य संकल्प है ।
विवेक विरोधी कर्म ।
आसक्ति । जगत में अभिनय न कर । आध्यात्मिक अभिनय ।
आंशिक कर्तव्य कर्म जैसे हम करते है  कभी कभी भजन । कभी कभी साधन -साधना । इस अनित्य साधन की मिथ्या अभिमानित करती है । स्वरूप बोध हो ; देहात्म का ज्ञान हो तब किया भजन अहंकारित करेगा ही नही । क्योंकि जीव समय काल से प्रभावित और देह अनित्य है । नित्य चेतन भी साधन शरीर रहते ही कर सकता है । शरीर ही साधन है । जीवन साधना ।

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