द्वारि द्युनद्या ऋषभः कुरुणां ,
मैत्रेयमासीनमगाधबोधम् ।
क्षत्तोपसृत्याच्युतभावशुद्धः ,
पप्रच्छ सौशील्यगुणाभितृप्तः ।।
(श्रीमदभागवत 3/5/1)
परमज्ञानी मैत्रेय मुनि गंगाद्वार (हरिद्वार) क्षेत्र मेँ विराजमान थे । भगवद्भक्ति से शुद्ध हृदय वाले विदुरजी उनके पास पहुँचकर उनके साधुस्वभाव से आप्यायित होकर मैत्रेयी जी से पूछा ।।
यहाँ पर हरिद्वार या हरद्वार न कहकर गंगाद्वार क्यो कहा गया ?
1. बदरीनाथ जाने का द्वार इसलिए हरिद्वार ।
2. केदारनाथ जाने का द्वार इसलिए हरद्वार ।
यहाँ पर शैवोँ और वैष्णवोँ का विवाद न हो इसलिए श्रीमद्भागवत मेँ न तो हरद्वार कहा गया , और न ही हरिद्वार । दोनोँ से बचकर "द्वारि द्युनद्याः " गंगाद्वार कह दिया गया अर्थात् जहाँ पर गंगाजी समतल भूमि पर उतरती है , उसका द्वार है ।। सनकादिक ऋषि भी नारद से कहते है -
श्रृणु नारद वक्ष्यामो विनम्राय विवेकिने ।
गंगाद्वारसमीपे तु तटमानन्दनामकम् ।।
(श्रीमदभागवत माहात्म्य अध्याय 3/ 4)
नारद जी आप बड़े विनीत और विवेकी हैँ । सुनिये हम आपको सब बताते हैँ । गंगाद्वार (हरिद्वार ) के पास आनन्द नामक एक घाट है ।।
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