श्रीभाईजी ( हनुमानप्रसादजी पोद्दार ) सर्वोपरि, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी, सर्वाधार, सर्वमय , सर्वगुणाधार, निर्विकार, नित्य, निरंजन, सृष्टिकर्त्ता, पालनकर्त्ता, संहारकर्त्ता, विज्ञानानन्दघन, सगुण, निर्गुण, साकार, निराकार, परमात्मा वस्तुतः एक ही हैं। वे एक ही अनेक भावों और अनेक रूपों में लीला करते हैं।।
हम अपने समझने के लिए मोटे रूप से उनके आठ रूपों का भेद कर सकते हैं। 1 - नित्य विज्ञानानन्दघन, निर्गुण, निराकार, मायारहित, एकरस ब्रह्म ; 2 - सगुण, सनातन, सर्वेश्र्वर, सर्वशक्तिमान, अव्यक्त निराकार परमात्मा ; 3 - सृष्टिकर्त्ता प्रजापति ब्रह्मा ; 4 - पालनकर्त्ता भगवान विष्णु ; 5 - संहारकर्त्ता भगवान रूद्र ; 6 - श्री राम, श्रीकृष्ण, श्रीदुर्गा, काली आदि साकार रूपों में अवतरित रूप ; 7 - असंख्य जीवात्मा रूप से विभिन्न जीवशरीरो मे व्याप्त ; 8 - विश्व ब्रह्माण्ड रूप विराट। ये आठों रूप एक ही परमात्मा के हैं। इन्ही समग्र रूप प्रभु को रुचिवैचित्र्य के कारण संसार में लोग ब्रह्म, सदाशिव, महाविष्णु, ब्रह्मा, महाशक्ति, राम, कृष्ण, गणेश, सूर्य, अल्लाह, गॉड, प्रकृति आदि भिन्न भिन्न नाम रूपों में विभिन्न प्रकार से पूजते हैं। वे सच्चिदानन्दघन अनिर्वचनीय प्रभु एक ही हैं, लीलाभेद से उनके नाम रूपों मे भेद है और इसी भेदभाव के कारण उपासना में भेद है।
यद्यपि उपासक को अपने इष्टदेव के नाम-रूप मे ही अनन्यता रखनी चाहिये तथा उसी की पूजा शास्त्रोक्त पूजन-पद्धति के अनुसार करनी चाहिये, परन्तु इतना निरंतर स्मरण रखना चाहिये कि शेष सभी रूप और नाम भी उसी इष्टदेव के हैं। उसी के प्रभु इतने विभिन्न नामों-रूपों में समस्त विश्व के द्वारा पूजित होते हैं।इनके अतिरिक्त अन्य कोई है ही नहीं। तमाम जगतमें वस्तुतः एक वही फैले हुए हैं।
एक की पूजा से स्वाभाविक ही सभी की पूजा हो जाती है।क्योंकि एक ही सब बने हुए हैं। जो विष्णु को पूजता है, वह.अपनेआप ही शिव, ब्रह्मा, राम, कृष्ण आदि को पूजता है और जो राम , कृष्ण को पूजता है वह ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि को ।
परन्तु जो किसी एक रूप से अन्य समस्त रूपों को अलग मानकर औरों की अवज्ञा करके केवल अपने इष्ट एक ही रूप को अपनी ही सीमा में आबद्ध रखकर पूजता है, वह अपनें परमेंश्वर को छोटा बना लेता है, उनको सर्वोच्च के आसन से नीचे उतारता है, इसलिए उसकी पूजा सर्वोपरि सर्वमय भगवान की न होकर एकदेशनिवासी स्वल्प देवविशेष की होती है और उसे वैसा ही उसका अल्प फल मिलता है।
अतएव पूजो एक ही रूप को, परन्तु शेष सब रूपों को समझो उसीएक के वैसे ही शक्तिसम्पन्न अनेक रूप ।
-------श्री राधाबाबा के श्रीमुख से - मेरी यह धारणा है कि श्रीराधारानी के साथ अभेदावस्था किसी किसी विरले महापुरुष की ही होती है। जिसका उदाहरण एकमात्र अबतक केवल चैतन्य महाप्रभु ही हैं।इनके अतिरिक्त आधुनिक सन्तों में तो कोई नही है। श्रीराधारानी में अभेदावस्था की प्राप्ति तो दूर की बात है,इन श्री राधारानी के इस रूप का दर्शन ही ब्रह्माजी एवं शंकरजी तक को दुर्लभ है। पद्मपुराण में यह कथा आती है कि श्रीनारदजी को इनके दर्शन होने पर श्री गोपीजनों ने कहा है कि इस रूप का दर्शन जो तुम्हे हुआ है,त्रिदेवों को भी दुर्लभ है।ऐसी श्रीराधारानी का दर्शन पूज्य श्री भाईजी हनुमानप्रसादजी पोद्दार को हुआ और वे उसमें लीन हो गये। पूज्य पोद्दार महाराज दासी का, मंजरी का, नर्म सखियों का सबका उल्लंघन करते हुए सीधे श्रीराधारानी में सायुज्य लाभ करके कृतार्थ हो गये।
-------किसी ने श्री भाईजी से प्रश्न किया - सर्वोत्तम साधन क्या है ? भाईजी ने उत्तर दिया -
मेरी तो first, last & latest discovery (प्रथम, अन्तिम और नवीनतम अविष्कार )यही है कि अपना कल्याण चाहने वाला व्यक्ति नाम का आश्रय पकड़ले और साधन हो सके तो अवश्य करे ,किसी का विरोध नही है परन्तु और कुछ भी न हो सके तो केवल जीभ से निरन्तर नाम जप करता रहे।
भगवन्नाम के अनुभव मैं क्या बताऊँ जीवन में जो कुछ भी अच्छापन है वह केवल भगवन्नाम और भगवत्कृपा की महिमा है।मैं सच कहता हूँ कि मेरे पास अगर कोई धन है तो भगवन्नाम और भगवत्कृपा का ।
भगवान के मंगलमय नाम से ऐसा कौन सा कार्य है,जो सिद्ध नहीं हो सकता ; ऐसा कौनसा महापाप है,जिसका नाश नही हो सकता।ऐसी कौनसी परम गति या मुक्ति है ,जो नाम से नहीं मिलती ।
मोहन-मन-धन हारिणी,सुखकारिणी अनूप।
भावमयी श्रीराधिका, आनन्दाम्बुधि-रूप।।
- श्री भाईजी।
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