एक प्रार्थना सन्तों ने बहुत शोध के बाद दी ,पर हम उसे करते ही नहीँ ,
सर्वे भवन्तु सुखिनः ...
सभी का कल्याण हो , यहीँ प्रार्थना ।
इसके अभ्यास हेतु जीवन में जो भी सन्मुख हो , वस्तु , पदार्थ कोई जीव , या मानव अपितु शत्रु , भीतर एक ही भावना गहरी हो , एक प्रार्थना गहरा उठे हर बार , भगवन् इनका कल्याण हो ।
इस भाव से आप उस कल्याण के निमित्त होंगे , कम से कम किन्हीं के प्रति भी राग - द्वेष न होगा । भीतर से सम्पूर्ण शक्ति से सभी के कल्याण का आह्वान कीजिये , यहीँ वेद उपनिषद का सार है । इस कल्याण में स्वयं का बोध न हो, सभी का कल्याण हो , और स्व का विचार नहीँ । यह नहीँ कि मेरा अनर्थ हो या उत्तम हो । भीतर उठती नित्य कल्याणमयी भावना दिव्य स्थितियों तक लें जाती है , इसके परिणाम की बात नहीँ करनी तब यह प्रार्थना निष्काम नहीँ होगी ।
जो भी ईश्वर की निजी वस्तु है या प्रेमी है उसका ध्येय केवल जगत् कल्याण है ।
वस्तुतः कल्याण नित्य है , सदा है , परन्तु स्व के लिये चाहने से उसका स्वरूप प्रगट नहीँ । जितना बाहर कल्याण की मांग होगी भीतर उतना ही कल्याण उतरने लगेगा । कल्याण स्वयं हरि है , उन्हीँ का एक नाम कल्याण है , अमृत का वितरण और विष का पान करने वाले शिव ही कल्याण है । अर्थात् व्याप्त ब्रह्म । हम अमृत रस पीने को आतुर है , या तो हम दैत्य है अथवा सुर पर निष्काम चित् शिव नहीँ । रस की चाह में विष भी उदित होगा ही । विष ही महान रस है यह रहस्य केवल नारायण जानते है । शिव भी नहीँ , जानते तो वह उस विष को भी ग्रहण नहीँ करते । वस्तुतः मूल अमृत शिव ने ही पिया है । यह कल्याणमयी यात्रा से समझ आवेगा । शिव में विष का ही फलीभूत माधुर्य पुनः हरि को मोहिनी होने पर विवश कर देता है । मोहन का ही स्त्रैण मोहिनी स्वरूप है , कल्पना कीजिये शिव जी के रस आनन्द की । अगर विष से ऐसा रस गहरावें तो वह विष ही अमृत है । स्वयं की रसमयता की नहीँ जगत् की रसमयता की भावना से भर जाईये । मैं समन्दर भी किसी गैर से ना चाहूँ ,
एक कतरा (अश्क़) भी समन्दर है ग़र तू दे दे । - सत्यजीत तृषित
Friday, 13 May 2016
सर्वे भवन्तु सुखिनः -- तृषित
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