Friday, 6 May 2016

भगवत् स्वरूप

मुखजितशरदिन्दुः केलिलावण्यसिन्धः
करविनिहतकन्दुर्वल्लवीप्राणबन्धुः।
वपुरुपसृतरेणुः कक्षनिक्षिप्तवेणु-
र्वचनवशगधेनुः पातु मां नन्दसूनुः।।
उत्तरंगदंगरागसंगमातिपिंगल-
स्तुंगश्रृंगसंगिपाणिरंगनालिमंगलः।
दिग्विलासिमल्लिहासिकीर्तिवल्लिपल्लव-
स्त्वां स पातु फुल्लचारुचिल्लिरद्य वल्लवः।।
भगवान के अनेक विभिन्न अवतार होते हैं - पुरुषावतार, लीलावतार, गुणावतार, मन्वन्तरावतार, युगावतार, आवेशावतार, कल्पावतार, कलावतार, अर्चावतार आदि। और भगवान स्वरूपतः नित्य-सत्य-परिपूर्णतम होने के कारण उनका प्रत्येक रूप ही नित्य, शाश्वत, सच्चिन्मय,, हानोपादानरहित, परानन्द-संदोह और पूर्णतम है; तथापि लीला की दृष्टि से शक्ति के प्रकाश के तारतम्यानुसार भेद दिखायी देता है।

पूर्तिः सार्वत्रिकी यद्यप्यविशेषा तथापि हि।
तारतम्यं च तच्छक्तेर्व्यक्त्यव्यक्तिकृतं भवेत्।।[1]

पर जब भगवान स्वयं अपने पूर्णरूप में प्रकट होते हैं, तब वे सर्वावतारमय होते हैं। स्वयं-भगवान श्रीकृष्ण प्रतिकल्प में स्वयंरूप में प्रकट होते हैं और वे प्रकट होते हैं मधुर मनोहर नर-वपुरूप में। इसी से भगवान के सर्वभूतमहेश्वर सर्वरूप के तत्त्व को न जानने वाले मूढ़लोग भगवान के इस मानुष रूप को देखकर उनको पान्चभौतिक-देह-विशिष्ट मनुष्य मान लेते हैं -

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।।[1]
वास्तव में स्वयं भगवान की यह नराकृति नरलोक के नर-शरीरों के आदर्श पर बनी हुई नहीं है, यह नित्य है। वस्तुतः ‘भगवद्देह के आदर्श पर नर-शरीर का निर्माण है। भगवान का शरीर दिव्य, अप्राकृत, देह-देहि-भेद से रहित, जन्म मृत्यु से रहित, सर्व-कारण-कारण, नित्यसिद्ध, निर्विकार, अनादि, सर्वादि, सच्चिदानन्दघनस्वरूप है। और नरलोक का नर-शरीर रक्त-मांसादि से गठित, खण्डित, जन्म-मृत्युशील, पन्चभूतनिर्मित, आत्मा (देही) और देह के भेद से युक्त तथा विनाशी है। भगवद्विग्रह स्वेच्छामय विशुद्ध भग्वत्स्वरूप है -

स्वेच्छामयस्य न तु भूतमयस्य कोऽपि।[2]
उसका प्रारब्ध-परवश निर्माण, कर्मभोग तथा विनाश नहीं होता; वह नित्य, सत्य, सनातन तथा दिव्यकर्मा है। भग्वत्स्वरूपा प्रकृति में अधिष्ठित होकर अपनी ही स्वरूपभूता लीलारूप माया से प्रकट और अप्रकट होता है।

तन्त्रशास्त्र में कहा गया है -
निर्दोषपूर्णगुणविग्रह आत्मतन्त्रो
निश्चेतनात्मकशरीरगुणैश्च हीनः।
आनन्दमात्रकरपादमुखोदरादिः
सर्वत्र च स्वगतभेदविवर्जितात्मा।।
भगवान का दिव्य शरीर मोह, तन्द्रा, भ्रम, रूक्षता, काम, क्रोध, असत्य, आकांक्षा, आशंका, रोग, जरा, भय, विभ्रम, विषमता, परापेक्षा, परिवर्तनशीलता, अनित्यता, विनाश आदि दोषों से सर्वथा रहित तथा सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमत्ता, सत्यविज्ञानानन्दरूपता, सर्वैश्वर्य, असमोर्ध्व माधुर्य आदि गुणों से परिपूर्ण है। वह काल-कर्मादि के अधीन नहीं है, पान्चभौतिक शरीर के जडत्व आदि से रहित है; उसके हाथ, पैर, मुख, उदर आदि सभी एकमात्र दिव्य - चिन्मयानन्दरूप हैं। और उसमें - वृक्ष में पत्र-पुष्प-फलादि की भाँति स्वगत, दूसरे फल के वृक्ष के रूप में सजातीय तथा शिला आदि के रूप में विजातीय भेद नहीं है; वह केवल भगवद्रूप ही है। भाई जी ।

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