💐|| मूक सत्संग ||💐
* मूक सत्संग का तात्पर्य केवल वाणी से मूक हो जाना नहीं है अपितु
इंद्रियाँ - मन- बुद्धी से भी " मूक " ( क्रियारहित , असंग , शान्त ) हो
जाना है | इस साधन में कुछ करना नहीं पडता है | तात्पर्य यह है कि यह
करने का साधन नहीं है अपितु समझने का साधन है |
एक बार सागर में रहने वाली एक नन्हीं सी मछली के भीतर एक
जिज्ञासा उत्पन्न हुई | उसने अपनी माँ से पूँछा कि मैं कई दिनों से
"सागर" नाम सुन रही हूँ , पर यह सागर कौन है और कहाँ रहता है ?
माँ ने उत्तर दिया कि " सागर " नाम तो मैं भी बचपन से सुनती
आयी हूँ , पर मुझे इसके बारे में कुछ नहीं पता | मैनें कभी इस पर
विचार ही नहीं किया ! चलो अपनी सखियों से पूँछती हूँ | उसने
अपनी सखियों से पूँछा तो उनका भी यही उत्तर था कि इस पर तो
हमने कभी सोचा ही नहीं ! हाँ , एक बूढी मछली है , वह शायद
" सागर" के बारे में जानती हो | चलो चलकर उसी से पूँछें |कुछ
मछलियाँ तो यह कहकर रूक गयीं कि आप ही उस बूढी मछली के
पास जाओ , हमें " सागर" से क्या लेना देना ? कुछ मछलियाँ तमासा
देखने के उद्देश्य से उनके साथ चल पडीं | सब मिलकर उस बूढी
मछली के पास गयीं और पूँछा कि यह" सागर " कौन है ? आप
इसके बारे में कुछ जानती हो तो बतायें |
तब बूढी मछली ने हँसते
हुये कहा- " अरी पगलियो ! जिसमें तुम्हारा हमारा सबका जन्म
हुआ है , जिसमें हम दिन रात रहते है , जिसमें हम सब जी रहे हैं
और जिसमें हम सब एक दिन विलीन हो जायेंगें , जो हमारे बाहर
भीतर सब जगह परिपूर्ण है , जिसकी सत्ता से ही हमारी सत्ता है ,
जिससे हम कभी अलग नहीं हो सकते , और जो हमें अपने चारों
ओर दिखाई दे रहा है यही तो " सागर " है !कई मछलियों को तो
यह बात समझ में नहीं आयी | वे मौन होकर एक दूसरे का मुँह
देखने लगीं | कुछ समझदार मछलियों की आँखें आश्चर्य से खुली
की खुली रह गयीं |पर वह नन्हीं सी जिज्ञासु मछली सागर के ध्यान
में खोकर चुप ( मूक ) हो गयी , उसे सचमुच " सागर " का वोध हो
गया !
श्री योगवशिष्ठ महारामायण में मुनि वशिष्ठ जी श्रीराम जी से
कहते है " हे राम जी जिससे यह सब संसार है , जिसमें यह सब
संसार है , अर्थात जो संसार का अभिन्न निमित्तोपादान काँरण है
वही " ब्रह्म " है |* यह मूक सत्संग इस सिद्धान्त पर आधारित है कि
हम जहाँ है वहीं परमात्मतत्व है |* जो तत्व सब जगह परिपूर्ण है ,
नित्यप्राप्त है उसके लिये कोई साधन करना बनता ही नहीं |उसके
लिये तो एकमात्र " मूक " ( बाहर भीतर से अक्रिय होना ) ही उपाय
है|* चुप होने के सिवाय और करेंगें भी क्या ? " चुप " ( मूक ) इसलिये
होना है कि हमे जो परमात्मतत्व चाहिये वह अपने में है और अभी है ,
वह अपने द्वारा प्राप्त होता है शरीर के द्वारा नहीं |चुप ( मूक ) होने से
स्वत: उसका अनुभव होता है |
( श्रद्धेय स्वामी श्री रामसुखदास जी
महाराज के प्रवचन से. )
🙏🙏🙏
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