❤ साक्षी भाव ❤
विज्ञान कहता है,
इलेक्ट्रिसिटी तीन में टूटती है..
इलेक्ट्रान, न्यूट्रान और प्रोट्रान।
फिर इन तीन कणों से
सारा जगत निर्मित होता है।
धर्म भी कहता है कि वह एक,
त्रिमूर्ति हो जाता है।
क्रिश्चियन कहते हैं, वह एक,
ट्रिनिटी हो जाता है।
हिंदुओं ने त्रिमूर्ति बनायी।
उसके चेहरे तीन हैं,
लेकिन भीतर एक व्यक्ति है।
चेहरे तीन हैं।
अगर चेहरों से हम प्रवेश करें
तो हम एक में पहुंच जाएंगे..
ब्रह्मा, विष्णु, महेश।
हिंदुओं ने तीन नाम दिए हैं।
जब वह एक विघटित होता है,
सृष्टि तक आता है,
तो तीन हो जाता है।
और बड़ी हैरानी की बात तो यह है,
ब्रह्मा, विष्णु, महेश को
हिंदुओं ने जो अर्थ दिया है,
वही अर्थ इलेक्ट्रान, न्यूट्रान और प्रोट्रान को
विज्ञान ने दिया है। वही अर्थ!
क्योंकि सृष्टि की
पूरी प्रक्रिया के लिए जन्म चाहिए,
जन्म देने वाला चाहिए;
फिर जिसका जन्म होगा उसकी मृत्यु होगी,
तो मृत्यु चाहिए, मारने वाला चाहिए;
और जन्म और मृत्यु के बीच में
समय बीतेगा,
तो कोई संभालने वाला चाहिए।
तो ब्रह्मा जन्म का सूत्र,
विष्णु संभालने का सूत्र,
और शिव विनाश का सूत्र।
और ये ही तीन गुण इलेक्ट्रान,
न्यूट्रान और प्रोट्रान के हैं।
उसमें एक संभालता है;
एक आधारभूत है,
जिससे जन्म होता है;
और एक विघटन में ले जाता है,
जिससे विनाश होता है।
एक तीन में हुआ और फिर
तीन अनंत में हो गया है।
अब परमात्मा तक जाना हो
तो अनंत को पहले तीन में लाना पड़े,
और तीन को फिर एक से जोड़ना पड़े,
और एक हो जाना पड़े।
यह उलटी यात्रा होगी।
गंगा को गंगोत्री की तरफ ले जाना पड़ेगा,
मूल स्रोत की तरफ।
तो अनेक से दृष्टि तीन पर रोकनी पड़ेगी।
तीन बीच की मंजिल होगी।
और तीन के बाद एक रह जाएगा।
साधारण सांसारिक आदमी
अनेक में भटका हुआ है।
कितनी वासनाएं हैं,
कितनी आकांक्षाएं हैं,
कोई हिसाब?
हर वासना में कितनी-कितनी
और वासनाएं लग जाती हैं।
जैसे वृक्षों में पत्ते लगते हैं।
कोई अंत नहीं।
कितनी चाहें हैं।
पूरी होने का कोई उपाय नहीं दिखता।
और कितना साधन,
कितनी सामग्री,
सब भी तुम पा लो,
तो भी कुछ हल न होगा।
क्योंकि पाने वाला अतृप्त ही रहेगा।
और जितना तुम पाते जाओगे
उतना तुम अनेक में भटकते जाओगे।
उतना एक से दूरी होने लगेगी।
जितने तुम एक से दूर होते हो
उतने ही दुखी हो जाओगे।
जितना फासला बढ़ेगा
उतने दुखी हो जाओगे।
जैसे कोई प्रकाश के स्रोत से
जितना दूर होता जाए,
उतना अंधेरे में पड़ता जाएगा;
बहुत दूर हो जाए,
तो गहन अंधकार में हो जाएगा।
अनेक में जाने का अर्थ है,
एक से बहुत फासला हो गया।
और हम सब अनेक में हैं।
इसी को हम सांसारिक कहते हैं,
जो अनेक में है।
जो अनेक से तीन में आ गया,
उसको हम साधक कहते हैं।
वह दोनों के मध्य में है।
और जो तीन से एक में आ गया,
उसको हम सिद्ध कहते हैं।
वह वापस वहां पहुंच गया है,
जहां परमात्मा मूल में था।
अब इसे हम थोड़ा सा समझें।
अनेक से तीन को तुम कैसे पैदा करोगे?
अनेक से तीन को पैदा करने की
विधि का नाम ही साक्षी-भाव है, विटनेसिंग है।
अगर तुम अपनी वासनाओं को देखो,
उनके साक्षी बन जाओ,
भोक्ता नहीं।
भोक्ता अनेक होने की विधि है।
भोक्ता और कर्ता,
मैं कर रहा हूं, और मैं भोग रहा हूं;
तो फिर तुम अनेक में बिखर जाओगे।
इस अनेक को तीन में लाने की विधि है,
साक्षी-भाव।
तुम जो भी कर रहे हो,
उसे करने वाले की तरह नहीं,
दर्शक की तरह,
देखने वाले की तरह।
तुम्हारे जीवन में जो भी सुख-दुख घट रहे हैं,
उनको भी तुम द्रष्टा की तरह।
तब तुम अचानक पाओगे कि तीन आ गए।
एक है द्रष्टा,
और एक वह जो अनेक का जगत है,
वह पूरा का पूरा दृश्य हो गया।
अब उसमें अनेकता न रही।
वह सभी दृश्य हो गया।
और दोनों के बीच में जो संबंध है,
वह दर्शन।
द्रष्टा, दर्शन और दृश्य–
तुम तीन पर वापस आ गए।
जैसे ही साक्षी-भाव सधता है,
तुम साधक हो जाते हो।
वही संन्यासी की दशा है।
अनेक से तीन पर आ जाना, संन्यास।
तुम जो भी करो,
उसको द्रष्टा-भाव से–
रास्ते पर चलो, भोजन करो,
कपड़े पहनो, पैर टूट जाएं, दर्द हो,
बीमारी आए, सुख हो,
लाटरी मिल जाए–कुछ भी हो,
तुम देखते रहना।
और एक ही बात संभालने की है
कि तुम अपने साक्षी-भाव को मत खोना।
और उसको खोने के दो ढंग हैं।
अगर तुम भोक्ता बन गए,
तो खो गया।
अगर तुम कर्ता बन गए,
तो खो गया।
अगर तुमने कहा, यह मैंने किया,
तो उस क्षण में तुम साक्षी न रह सकोगे।
नशा पकड़ गया।
अकड़ आ गयी।
और जैसे ही नशा पकड़ता है,
तुम वही न रहे,
जो गैर-नशे के थे।
ओशो
➡एक ओंकार सतनाम :प्रवचन–15
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