आज कुछ बात सामने आई , कई स्मरण नहीँ -
भूल न जाऊँ सो लिख रहा हूँ ।
1 - सन्त स्पर्श या सत्संग से आपमें वह आवेश आ जाता है । जो सन्मुख सन्त या सत्संगी में निहित है । जैसे चैतन्य महाप्रभु के स्पर्श से ही सन्मुख नास्तिक भी गहन रूदन को प्राप्त होते , जबकि उतनी गहनता पर वें उतरे नहीँ , जहाँ महाप्रभु है ।
हम जानना चाहते है और सन्त स्पर्श और संग हमें सहज समर्पण होने पर सन्त जो जानते है वह मना ही देता है । अर्थात् जानने की प्रक्रिया से नहीँ गुजरना होता । आप मानी हुई अवस्था पर होते है , अब आपमें और उनमें इतना ही भेद रह जाता है , आप जिस बात को मानते हो उसे वह जानते भी है , उसकी गहनता से वह गुजरे है और वहाँ आप के छु जाने से स्वतः वह अवस्था अनुभूत् हुई । ईश्वर संग भी यह होता है । वह जो जानते है हमें मान लेना भर है , जानने की आवश्यकता नहीँ ।
2 - आज सोचा धर्म का उत्थान कैसे हो ?
सोचा तो था कि किसी ग्रन्थ या विषय से कोई सफल हो जावें उत्थान पा जावें तो उस ग्रन्थ का उत्थान कैसे हो ?
उत्तर आया बड़ा ही गहन अर्थ उसमें , धर्म का पृथक् उत्थान चाहने की आवश्यकता ही नहीँ , अपने उत्थान और विकास का कारण और स्रोत उसे ही मानने से ही धर्म का सहज उत्थान होगा ।
जैसे माँ को पृथक् गौरव की आवश्यकता नहीँ , अपने गौरव का दायित्व और कारण माँ है यह मान लेने से आप अनुभूत् करेगें माँ का उत्थान आपसे ऊपर ही है ।
आश्रय और अवलम्बन को स्वीकार कर लेने की बात है ।
सत्यजीत तृषित ।
यह बात इसलिये कि क्योंकि आज धर्म की पृथक् उत्थान की चाह है । आपका उत्थान या विकास धर्म से पृथक् नहीँ हो सकता । जो पृथक् चाहते है धर्म आदि का उत्थान वह अपनी अवस्था को स्वयं की प्राप्त मानते है उसमें धर्म की सिलाई दिखाई नहीँ देती उन्हें ।
No comments:
Post a Comment