Wednesday, 4 May 2016

स्वर्ण या रज चित् में कौन प्रधान है ?

ऐश्वर्य का ममत्व वास्तविक माधुर्य का मूल बाधक होता है - तृषित

तुलसी की कण्ठी आदि को भी क्या उस लोलुप्ता से हम खोजेंगे अगर वह खो जावें तो जैसे स्वर्ण के आभूषण को खोजते है ।

तुलसा जी की कण्ठी आदि और स्वर्ण आदि के संग खोने आदि पर हम किस हेतु वास्तव में विचलित होंगे ?

जब तक स्वर्ण (कंचन) के प्रति धारणा नहीँ बदलेगी उससे ममता , आसक्ति कम नहीँ होनी है ।
ब्रज रज का गुण गान ऊपरी रूप से गा कर भीतर ममता तो स्वर्ण से रह जाती है । अन्तस् समझ नहीँ पाता अमूल्य क्या है ?
जब तक स्वर्ण बेस्वाद न हो रज में स्वाद नहीँ होगा । या रज में स्वाद न हो स्वर्ण बेस्वाद नहीँ होगा ।
मूल में तो स्वर्ण भी रज ही है । और रज में तो सभी तत्व होते है यह विज्ञान भी जानता है , अथ उसमें स्वर्ण के परमाणु भी है । तिलक आदि इसलिये होता है क्योंकि उसमें भगवत् या सन्त चरण स्पर्श से प्रेम के प्रत्यक्ष परमाणु है ।
सन्त और ईश्वर की रज से रजोगुण की निवृत्ति होती है । और रजो गुण या राजस गुण ही तामस और सात्विकता का कारण है । रजो गुण की निवृत्ति से सत्व गुण होता है । सत्व का विकास आगे विशुद्ध सत्व या निर्गुण अवस्था है यहीँ प्रेम मय भूमि है।
स्वर्ण आकर्षण संसार की आसक्ति है । रज आकर्षण भगवत् आसक्त का रस है । बाहर देखा देखी रज का तिलक आदि , पर चित् से स्वर्ण का मोह नहीँ हटता । जब तक चित् को यह पूर्ण आस्था न हो जावें कि रज का मूल्य सदा स्वर्ण से अधिक है , स्वर्ण के प्रति भावना का लोप नहीँ होता , ऐसा होता तो किसी देवस्थान पर तो रज को प्रधान जान कर रज के मुकुट और आभूषण आदि पहने पहनाये जाते ।
रज निवृत्ति और स्वर्ण प्रवृत्ति के प्रतीक है । हम किसे महत्व देते है यह हमारा चित् जानता है ।
स्वर्ण का भोग एक दिन रज की महत्ता प्रकट कर देता है । स्वर्ण भोगी को रज के एक कण स्पर्श से आह्लाद अनुभव होता है जो बहुत स्वर्ण नहीँ दे सका ।

बाह्य रूप से लौकिक विचलित होना बाह्य ही ठीक । आंतरिक व्याकुलता का सम्बन्ध अनन्य रूप से श्री हरि से ही हो ।
लौकिक धन की आवश्यकता हो सकती है , सम्बन्ध प्रियतम से तो व्याकुलता दिव्य अप्राकृत भगवत् प्रीति रूपी धन और प्रीत वर्धक भगवत् रस वर्धक तत्वों से ही हो ।

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