Wednesday, 4 May 2016

प्रवृति और निवृत्ति 2

प्रवृत्ति और निवृत्ति 2

उपरोक्त प्रवृति और निवृत्ति की
बात आपके लिये इसलिये महत्व रखती है । कि लोग रुक जाने को संन्यास कहते है , आँख बन्द कर लेने को ध्यान ।
जबकि भूख मिटी ही नहीँ तो थाली हटा देने से आप स्वयं को तृप्त घोषित नहीँ कर सकते ।
यह बात सरल से सरल कही जा सकती है , कहा जा सकता है बहते रहना है , और हर लम्हें को उन्हें जीने देना है पर यह सरल कहते ही सरल मान सभी को यही लगता है , यही तो कर रहा हूँ ।
हम बह तो रहे है पर संसार सागर की और कैलाश से गंगासागर की और हमें गंगासागर से कैलाश की और बहना है और यह सरल नहीँ ।
हम ईश्वर से प्रतिकुल बहते है , उनकी और पीठ रहती है । विशुद्ध भोग जगते ही हम घूम कर ईश्वर की और बहने लगते है यह बहाव ही व्याकुल यात्रा है , इस पथ में प्रतिकूल बहना माया और अनुकूल और गहन बहना ब्याकुलता है । विरह है । इस यात्रा में अनुकूल व्याकुल बहने पर एक समय निश्चित मिलन है और उसके बाद हम बह कर बहेगें नहीँ । मिलन की स्थिति आनन्द और उसके बाद की जीवन यात्रा निवृत्ति है ।
बोध पाकर विपरीत बहने की अपेक्षा परस्पर गहरी प्यास से बहना विशुद्ध प्रवृत्ति है क्योंकि इस प्यास को रस तो चाहिये पर लौकिक नहीँ , दिव्य रस या मानिये इस यज्ञ अग्नि को सोम आहुति ही पूर्ण कर सकती है ।
भूखे का पेट भरने पर उसे सुंदर स्वादिष्ट अन्न भी ग्रहण करने की चेष्टा नहीँ रहती वह तृप्त हो कर आराम में होता है , शांत होता है । अग्नि मन्द हो जाती है ।
वैसे ही भोग रूपी प्रवृत्ति धर्म के पूर्ण होने पर तृप्त भाव का आविर्भाव होने के कारण निवृत्ति धर्म का उदय होता है । इसलिये निवृत्ति धर्म की कोई साधना नहीँ । यह स्वभाव के नियम से स्वतः होता है , हाँ अग्नि की तीव्रता से गति तीव्र और आकर्षक होती है । अन्य कोई चेष्टा नहीँ चाहिये ।
सत्यजीत तृषित ।

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