[]श्री भाईजी --->
हमारे मन पर जो भी प्रभाव डाले वो सारा संग है, वो संग चाहे किसी भी वस्तु का हो या परिस्थिति का हो या किसी भी प्राणी का हो। जो भगवान से हटा के भोगों मे लगा दे वो कुसंग और जो भोगो से हटाकर के भगवत्प्रेम की ओर लगा दे वो सत्संग , वो साधुसंग ।
भगवान के प्रेम की प्राप्ति के मार्ग में जो कुछ भी बाधक है वो सारा का सारा दुस्संग है , चाहे उसका नाम सत्संग हो , चाहे उसका नाम सम्पत्ति हो , चाहे उसका नाम धन हो , मान हो ,कीर्ति हो ,अधिकार हो ,स्वर्ग हो ,सुख हो ,भोग हो , मान हो ,संतपना हो , कुछ भी हो ,जो भगवत्प्रेम के मार्ग में विरोधी , बाधक, उसका संग दुस्संग , दुस्संग सर्वथा त्याज्य ।
बरु भल बास नरक कर ताता दुष्ट संग जनि देइ विधाता
( रामचरितमानस)
[]श्री भाईजी --- ये जो बहुत सुनना और बहुत कहना है -- ये साधकों का काम नहीं है, ये तो सुनने की शौक वालों का काम है। अच्छी शौक है इसलिए अच्छी बात है, बुरी चीज नहीँ, इससे लाभ होगा, इसमें कोई संदेह नहीं। भगवान के गुणानुवाद, अच्छी बातें कैसे भी कान में जायँ - ये लाभदायिनी हैं जरा भी संदेह नहीं , इसका खंडन जरा भी नही, जितना प्रचार उतना अच्छा , तथापि जो एकांत साधक है, उसके लिए बहुत सुनने की, बहुत जानने की आवश्यकता नहीँ, थोड़ा जाने, थोड़ा सुने और जो जाने, जो सुने, उसको जीवन में उतारना शुरू करदे - ये साधक का काम।
[]श्री भाईजी --- ये जितने भी भाषण हैं, जितने भी वक्तव्य हैं --- ये सब साधना की चीज नहीं है। सर्वोत्तम चीज तो क्या होगी --- ये मैं समझता हूँ, चुपचाप बैठा राधा नाम जपता और राधा के स्वरूप का ध्यान करता हुआ आँसू बहाता। उसके सामने इन भाषणों का कोई मूल्य नहीँ है, ये सब बाह्य हैँ। पर स्थिति अपनी बाह्य है, इसलिए बाह्य स्थिति की बात सामने आती है, इतना सौभाग्य - इनमें राधा का नाम आ जाता है, श्यामसुन्दर का नाम आ जाता है, इसी बहाने उनकी स्मृति होती है।
[]श्री भाईजी --
वस्तुतः मुझमें कुछ भी नही है। जो कुछ है, भगवान में है। भगवान के सम्पर्क को लेकर जो मेरे माध्यम से भगवत्प्राप्ति या भगवत्प्रेम चाहते हैं,उनके अन्तःकरण की सत्यता के फलस्वरूप भगवत्कृपा से उनकी प्रेमकामना पूर्ण होगी। पर मेरे साथ उनका सम्बन्ध केवल भगवत्-सम्पर्कयुक्त ही होना चाहिये, किसी प्रकार की लौकिकता का सम्मिश्रण उसमें नहीं होना चाहिए।
इसलिए मै इस बात को जानता हूँ कि मुझसे दूर-दूर रहने वाले कई स्त्री-पुरुष मुझमें भगवत्सम्पर्कित निष्ठा रखने के कारण भगवत्प्राप्ति के समीप पहुँच रहे है,और मेरे पास, सदा मेरे समीप रहने वाले बहुत से लोग भाव न रखने के कारण आत्मवंचित हो रहे हैं।
अपने को जगत के सामने मुझे अपना जाहिर करने वाले कोरे रह गये और जिनके विषय में किसी को पता भी नहीं है कि उनसे मेरा कोई सम्पर्क है, वे पा गये। जो पा गये, वे अब भी पा रहे हैं और चूंकि उनका मार्ग मुक्त हो गया है,अतएव वे आगे भी यथाधिकार पाते रहेंगे।
अत एव जबतक जीवन है,तबतक जिनको कुछ भी पाने की ईच्छा.हो,उन्हें अंतरंग बनने की -- पास रहने, न रहने को कोई महत्व न देकर -- मेरे मनोनुकूल साधना में नित्य प्रवृत्त रहनें की चेष्टा करनी चाहिये, जिससे कम से कम उनका ग्रहण द्वार मुक्त हो जाय।
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