Monday, 23 May 2016

विष पीजिये

हम सब गहन त्यागी बन चुके ।
कहते है कुछ नहीँ चाहिये ।
यह नहीँ , वह नहीँ ।
मोक्ष तक नहीँ , फिर कहते है ,
रस चाहिये , आनन्द चाहिये ।।।
यह भी तो चाहिये ।।।
रस के लिये भी रस आतुरता नहीँ ,
प्यास नहीँ । बस कहीँ स्टॉल लगी हो
रस की । और वहीँ पी लें ।।।
रस को खरीदा - बेचने सा भी समझते है ।

रस के लिये दो टुक में कहू ,
रस ही लक्ष्य है सच में "विष" पीजिये ।।।
रस मिल भी गया न पीजिये ।।।
विष पीजिये , निःसंकोच ।।।
अब इसमें कारण और क्यों ?
लगाते ही लोभ और कामना विष की
और सहज घूम जायेगी ।।।
विष इसलिये नहीँ पीना कि
रस पीना था , विष ही रस होगा ।
अपितु इसलिये पीना है विष की
रस की योग्यता नहीँ और रस हमारे लिये
हो नहीँ सकता । हम विष पी सके इस स्थिति
पर ही नहीँ , रस तो बड़ी बात ।  बिन जाने
विष पीना होगा उसी लोभ से जिस लोभ से
रस को सोचा । आगे क्या होगा कहते ही
कर्मफल का त्याग नहीँ होगा ।।। अतः मौन हो
कर रस नहीँ विष पीजिये ।।।
आप अगर रस पीते है तो या तो आपके हिस्से का
विष आप पी चुके है , या पियेंगे । और स्वयं रस
पीना यानी शेष का विष पीना । 
स्वयं विष पीना यानी सभी का रस पीना ,
आगे अहित कैसे सम्भव है ।
तर्क वितर्क नहीँ सोच , इसे कर ही लीजिये ।
सत्यजीत तृषित ।।।

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