Thursday, 5 May 2016

रोग की आवश्यकता और तृषित

विष की पूर्ति अमृत का प्रथम बिन्दु होती है ।
असमर्थता की पूर्णता में समर्थ की भावना और कुरूपता का अंतिम बिन्दु सुंदरता का प्रथम बिन्दु होता है । रावण की पराकाष्ठा में सहज राम आगमण का योग है ।
तृषा की गहनता से रस की गहनता है , जिसे 3 दिन जल की बूँद न मिले फिर एक चम्मच मिल जावें वह जल रूप में जल नहीँ अमृत ही पिता है ।
एक बात जिसे भौतिक नहीँ भगवत् पथ पर ही समझा जा सकेगा । भौतिकता में तो यह रूढ़ि वादिता लगेगी । परन्तु भगवत् पथ पर बोध होना गलत कुछ नहीँ होता , अमंगल करना हरि के बस की बात नहीँ , वह सदा आवश्यक विधान ही करते है भले हमारी लघु मति उस मंगलता का दर्शन ना कर रही हो ।
जैसे दैहिक रोग , यह भौतिक कष्ट है  और भगवत् पथ पर यह औषधि है ,  व्याकुलता हेतु । साधना की गहनता विषम स्थितियों में होती है । कोयले से कुंदन तक का सफर विपरीत स्थितियों में होता है । रोगी तन से उठी पुकार सत्य होती है , उसमें पाखण्ड आदि भावना नहीँ होती , ना ही दिखाने भर को दम्भता । अतः वह कुछ शुद्ध होती है और स्वभाविक आह होती है , ऐसा नहीँ 7 स्टार होटल में हुई भजन सन्ध्या में वाह के माहौल में उठी ऊपरी आह ।
माहौल का आह भरा होना आवश्यक है सच्ची आह हेतु और यह कोई चाहता नहीँ ।
रोग भजन की गहनता हेतु और जीवन से देह की ममता हटाने आते है । अधिकतर विकार अहम् से होते है और उनका सम्बन्ध स्वयं को देह जानने से है , रोग की गहनता से पता चल जाता है , तन कई सामर्थ्यता का । तब तन प्राप्त भगवत् वस्तु ही होती है अतः निजता नहीँ रहने पर भी सकरात्मकता रहती है । निरोग अवस्था जिस भाँति आवश्यक है वैसे ही रोग अवस्था आवश्यक है । निरोग अवस्था , सुख क्षण में भगवान के विधान को मङ्गलमय कहना सहज है । विपरीत क्षण में ही वास्तविक मांगल्य का दर्शन होता है । मांगल्य की ही भावना की दृढ़ता से रोग और दुःख का ताप आभास नहीँ होता । और इस स्थिति में मांगल्य दर्शन भगवत् कृपा की साक्षात् अनुभूति है ।
देखिये पुरानी परम्पराओं में कुछ रोगों को भगवत् प्रसाद मान उनका वरण किया जाता था , जैसे माता (शायद खसरा कहते है इसे) । रोग को भगवत् प्रसाद जान रोग को ही माता कह दिया , बालकों और शिशु में जलवायु परिवर्तन पर ऐसा अधिक होता है । इस स्थिति में पुरानी रीती ऐसी है कि जैसे भगवत् कृपा ही हो । रोग की निंदा आदि भी नहीँ होती । और रोगी तन की सात्विकता से सेवा होती है , दवा नहीँ । रोग को सहज निवृत्ति तक लें जाया जाता है , दमन नहीँ किया जाता । नमन करता हूँ ऐसी संस्कृति को जो रोग में भी भगवत् दर्शन करती है । यह रूढ़ि कही जा सकती है , इसका प्रचार नहीँ कर रहा हूँ , यह तो गहन आध्यात्मिक शक्ति का सूत्र है । इस की परम्परागत  प्रक्रिया को आज सुना , यह शिशु की माता की साधना ही लगा । माँ की भावना का इस रोग पर प्रभाव पड़ता है । माँ की सत्य निष्ठा नन्हें शिशु के ताप को सहती है , वास्तव में यह रोग शिशु देह को होकर भी माता की वेदना होता है । माँ अबाध अभिन्नता से इसमें शिशु के कष्ट को पी सकती है । विश्वास का आज हममें गहन अभाव है अतः यह आज रूढि वादिता है ।
ऐसे ही सन्त जन रोग को भजन भावना उपयोगी जान उसका शमन नहीँ वहन करते रहे है । उपचार नहीँ रोग के कष्ट को कृपा जान । हाँ , भगवान की मंगलता उपचार में है तो वह भी होता है , भले ऐसे सन्त ना करते रहे क्योंकि अभी भगवान के मंगलमय विधान का खेल जारी है , पारी पलटी नहीँ ।
कहने का तात्पर्य यहीँ है भगवत् विधान नित्य मंगलमय है । अमंगल का हरण करने वाला है ।
यहाँ मुझे यह कहना था कि तृषित होने से तृषा वृद्धि मेरा धर्म है , आवश्यक तृषा ही मेरा संस्कार पर जैसे ही भावना होती है , कि कुछ रोग हो तब या तो रोग नहीँ होते ,  होते है तो आनन्दमय होते है , जिससे बड़ा अच्छा अनुभव होता है और तृषा वृद्धि नहीँ होती । अर्थात् जहाँ खड़ा हो जाऊँ वहाँ ही तृषा वृद्धि नहीँ लगती , जबकि गहनता में यह स्वभाविक वृद्धि है । तृषा वृद्धि हेतु उपवास करना धीरे धीरे रस आनन्द हो जाता है और व्रत उपवास ना करना तृषा वृद्धि करता है , खाता रहता हूँ भीतर कुछ उतरता नहीँ ।
पहले कष्ट और असहजता का बड़ा संग रहा , लौकिक रूप से उसे पीड़ा या दुःख कहेगें वहाँ से तृषा बढ़ती रही फिर वह परिस्थिति अनुकूल हो गई और उल्लास , धूमधाम आदि प्रतिकूल हो गई वहाँ होने पर व्याकुलता होती क्योंकि चेतना के आवरण को वह निराशामय राज्य ही भाने लगा था । पर जब तक तृषा वृद्धि हो उल्लास आदि भाया , फिर यह भी रस और आनन्द मय हो गया । तृषा ही मेरी साधना है यह मैंने पाया यह स्वभाविक हुई है , कभी लौकिक पारलौकिक प्राप्तियों पर भी प्राप्त से नहीँ अप्राप्त ही मेरा पथ है । इसलिये प्राप्त पारलौकिक सुख तृषा हो अतः उसका भी संग्रह मुझसे नहीँ हुआ , एक अथाह प्यास , अब रोग नहीँ होते क्योंकि वह मेरी तृषा है और उनका आ जाना मुझे आनन्दमय करेगा । यह सब वैसा है वर्तुलाकार माटी का यन्त्र । तृषा के प्रति भी अभिनय नहीँ बस तृषा पूर्ति नहीँ तृषा वर्धन की भावना है यह सब भगवत् मंगलमय विधान से नित्य है । मेरा बाहरी और आंतरिक रूप भी तृषित अवस्था की एक वृत्ति है । (किन्हीं को मेरा पथ समझना था अतः प्रयास किया)-- सत्यजीत तृषित ।

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