Tuesday, 3 May 2016

संयोग वियोग , करपात्री जी

जीवन की समस्त चिन्ताओं से, समस्त क्लेशों से और विपत्तियों से छुटकारा पाने की इच्छा हो तो भक्तिरसायन का ही सेवन करना होगा। इसके समान सस्ती, सुलभ अन्य महौषधि विश्व में नहीं है।

'हरिस्मृति: सर्वविपद्विमोक्षणम'

यह स्मरणभक्ति ही समस्त विपत्तियों (क्लेशों) का समूल नाश कर देगी। जब मन भगवान् के चरणारविन्द में शरणागत होकर तन्मय हो जायगा तब जगत् और उससे होनेवाले क्लेशों की प्रतीति नहीं होगी। इस प्रकार अपने आराध्यदेव में मन को विलीन कर देने से देह-गेह की भी सुध नहीं रहेगी। उस अवस्था में पहुँच जाओगे जहाँ सुख-शान्ति और परमानन्द की सतत वर्षा होती रहती है।

प्रेममयी भक्ति का प्रत्यक्ष दर्शन विरह में ही होता है। एक समय की बात है कि भगवान श्रीकृष्ण ने नन्दबाबा और यशोदा मैया तथा अपने सखा-सखियों को अपना कुशल समाचार देने और उनके कुशल समाचार ले जाने के लिये अपने परम सखा उद्धव जी को व्रज में भेजा।

भक्तशिरोमणि उद्धवजी ने व्रज में आकर व्रजवासियों के साथ कई मास बिता दिये। प्रतिदिन-प्रतिक्षण ही सबके साथ श्रीकृष्ण की चर्चा में जीवन के दिन सफल होते रहे। तदनन्तर एक दिन जब मथुरा लौटने के लिये उद्धव जी रथ में बैठे, तब उन्होंने सभी से पूछा-भगवान् कृष्ण से आपका क्या सन्देश कहूँ?

तब ‘नन्दादयोऽनुरागेण प्रावोचन्नश्रुलोचनाः’ नेत्रों से आँसुओं की धारा सतत बह रही है, ऐसी स्थिति में नन्दबाबा आदि लोग आकर कहने लगे- ‘आप भगवान को हमारी ओर से यह कहना-

‘मनसो वृत्तयो नः स्युः कृष्णपादाम्बुजाश्रयाः’

हमारे मन की वृत्तियाँ आपके चरणारविन्द में सर्वदा लगी रहें। और-

‘वाचोऽभिधायिनीर्नाम्नाम्’

हमारी वाणी आपके नामस्मरण में सदा लगी रहे। और-

‘कायस्तत्प्रव्हणादिषु’

हमारी काया (देह) आपको प्रणाम करने में सदा लगी रहे।’ इस प्रकार जीवनभर की भलाई के पथस्वरूप मन, वचन और काया के सुधार की माँग कर चुकने पर उद्धवजी ने पूछा-बस? या और भी कुछ कहना है?’ तब उन्होंने कहा, अभी और कहना बाकी है।

कर्मभिभ्र्म्यमाणानां यत्र क्वापीश्वरेच्छया।
मंगलाचरितैर्दानैर्मतिर्नः कृष्ण ईश्वरे।।

भक्तों को भगवत्प्रेम का उन्माद, वियोग-संयोग दोनों अवस्थाओं में होता रहता है। भगवान श्रीकृष्ण के साथ रहने वाली, श्रीकृष्ण से विहार करने वाली द्वारिका की श्रीकृष्ण-पत्नियों का मन भगवान की लीला में इतना तन्मय हो जाता है कि उन्हें स्मरण ही नहीं रहता कि हम श्रीकृष्ण के समीप हैं। एक ही समय उन्हें कभी दिन को प्रतीत होती है, कभी रात्रि की। वे न जाने क्या-क्या बोल रही हैं- हे पक्षी! तू इस समय इस नीरव नीशीथ में क्यों जग रहा है? इस विलाप का क्या अर्थ है? क्या श्रीकृष्ण को मुसकान और चितवन ने तुझ पर भी जादू डाल दिया है?  हे चकती! तू आँखे बन्द करके किसे प्रणय का आमन्त्रण दे रही है? क्या तू भी हमारे समान ही श्रीकृष्ण के चरणों पर समर्पित की हुई पुष्पमाला को पहनना चाह रही हो? रे समुद्र! तू क्यों गरज रहा है? दिग्दिगन्त को प्रतिध्वनित कर देनेवाली तुम्हारी गम्भीर ध्वनि का क्या तात्पर्य है? क्या श्रीकृष्ण ने हमारी ही भाँति तुम्हारा भी कुछ छीन लिया है? अरे चन्द्रमा! तेरी क्या दशा हो रही है? आज रतनी को तू अपने करों से रंग उड़ेलकर क्यों नही रँग देता? क्या तू भी श्रीकृष्ण की मीठी-मीठी बातों में आकर अपना सर्वस्व खो चुका है? हे मलयानिल! हमने तो तुम्हारा कोई अपराध नहीं किया है। फिर भी तुम हमारे अंग-प्रत्यंग का स्पर्श करके हृदय को क्यों गुदगुदा रहे हो? उसे तो यों ही श्रीकृष्ण की तिरछी चितवन ने टूक-टूक कर दिया है। अने घनश्याम के समान श्यामल मेघ! तू तो उसका सखा है न? उनका ध्यान करते-करते तू भी ऐसा ही हो गया है। ये तेरी बूँदें नहीं, तेरे प्रेम के तेरे आँसू हैं। अब क्यों रोता है? उनसे प्रेम करने का फल भोग ले। अरे पर्वत! तुम्हारे इस गम्भीर, मौन और अचन्चल स्थिरता का यही अर्थ है न, कि तुम हमारी ही भाँति अपने शिखरों पर उनके चरणों का स्पर्श चाह रहे हो? नदियो! क्या तुम वियोगिनी हो? हाँ, तभी तो तुम हमारी ही भाँति कृश हो रही हो। अरे हंस! आओ, आओ, तुम्हारा स्वागत है। इस आसन पर बैठो, दूध पीयो, कहो उनका कुशल-मंगल अच्छे तो हैं? वे क्या कभी हमारा स्मरण करते हैं? हम वहाँ नहीं जायेंगी। क्या वे हमारे पास नहीं आयेंगे? उसी तरह गोपियों का हृदय और उनका प्रेम अनिर्वचनीय है। वे गोपियाँ प्रेममय हैं, श्रीकृष्णमय हैं, अमृतमय हैं। उनका हृदय, उनका प्रेम, उनके भाव का अमृतमय स्त्रोत कभी-कभी स्वयं वाणी के द्वारा बाहर निकल आता है। वे जब बोलना चाहती हैं, तब बोला नहीं जाता, जब मौन रहना चाहती हैं, तब बोल जाती हैं। उनके दिव्य भाव दर्शनीय ही हैं-

हे सखी! जब सायंकाल हो जाता है, गायें व्रज में आने लगती हैं, उनके पीछे-पीछे ग्वाल-बालों के साथ बाँसुरी बजाते हुए श्रीकृष्ण और बलराम व्रज में प्रवेश करते हैं, तब उनकी स्नेहभरी चितवन का रस जो लेता है, उसी का जीवन सफल है। उसी की आँखे धन्य हैं। कितना विचित्र वेष रहता है उनका-आम्र-मंजरियाँ, कोमल-कोमल पल्लव, पुष्पों के स्तबक और कमलों की माला! गोप-बालकों के बीच में गाते हुए वे एक श्रेष्ठ नट के समान जान पड़ते हैं।
जय जय श्यामाश्याम

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