Saturday, 7 May 2016

सत्यम् परम् धीमहि

सत्यं परं धीमहि !
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जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञः स्वराट्
तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः।
तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा
धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि।।

'जिससे इस जगत का सर्जन, पोषण एवं विसर्जन होता है क्योंकि वह सभी सत् रूप पदार्थों में अनुगत है और असत् पदार्थों से पृथक है; जड़ नहीं, चेतन है; परतंत्र नहीं, स्वयं प्रकाश है; जो ब्रह्मा अथवा हिरण्यगर्भ नहीं, प्रत्युत उन्हें अपने संकल्प से ही जिसने उस वेदज्ञान का दान किया है; जिसके सम्बन्ध में बड़े-बड़े विद्वान भी मोहित हो जाते हैं; जैसे तेजोमय सूर्यरश्मियों में जल का, जल में स्थल का और स्थल में जल का भ्रम होता है, वैसे ही जिसमें यह त्रिगुणमयी जाग्रत-स्वप्न-सुषिप्तरूपा सृष्टि मिथ्या होने पर भी अधिष्ठान-सत्ता से सत्यवत् प्रतीत हो रही है, उस अपनी स्वयं प्रकाश ज्योति से सर्वदा और सर्वथा माया और मायाकार्य से पूर्णतः मुक्त रहने वाले सत्यरूप परमात्मा का हम ध्यान करते हैं।'
(श्रीमद् भागवतः 1.1.1)

         –जय श्रीमन्नारायण।

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