कुछ प्रमुख गोपियों के नाम व उनका पूर्वजन्म •
उग्रतपा नामक ऋषि ने रासलीला रत नवकिशोर श्रीकृष्ण का सौ कल्पों तक ध्यान किया, वे सुनन्द नामक गोप की कन्या ‘सुनन्दा’ हुए। •सत्यतपा नामक ऋषि ने सूखे पत्ते खाकर श्रीराधा के दोनों हाथ पकड़कर नाचते हुए श्रीकृष्ण का दस कल्पों तक ध्यान किया। वे सुभद्र नामक गोप की कन्या ‘सुभद्रा’ हुए। •हरिधामा नामक ऋषि ने निराहार रहकर कोमल पत्तों की शय्या पर लेटे हुए श्रीराधाकृष्ण का ध्यान किया, वे तीन कल्प के बाद सारंग नामक गोप के घर ‘रंगवेणी’ नामक कन्या के रूप में अवतीर्ण हुए। •जाबालि ऋषि ने एक पैर पर खड़े होकर व्रज में विहार करने वाले श्रीकृष्ण का ध्यान करते हुए नौ कल्पों तक तपस्या की। फिर वे प्रचण्ड नामक गोप के घर ‘चित्रगन्धा’ के रूप में प्रकट हुए। •शुचिश्रवा नामक ऋषि ने शीर्षासन में रहकर दस वर्ष की आयु वाले श्रीकृष्ण का ध्यान करते हुए तपस्या की। वे एक कल्प के बाद व्रज में सुधीर नामक गोप के घर उत्पन्न हुए। गोपियों का अपने पति-पुत्रादि से भी बढ़कर श्रीकृष्ण में प्रेम क्यों हुआ? श्रीमद्भागवत में राजा परीक्षित के यह पूछने पर कि ‘गोपियों का अपने पति-पुत्रादि से भी बढ़कर श्रीकृष्ण में प्रेम क्यों हुआ?’ शुकदेवजी कहते हैं–’आत्मा ही सब प्राणियों के लिए प्रियतम है। यह सारा जगत आत्मा के सुख के लिए ही प्रिय हुआ करता है और श्रीकृष्ण ही अखिल आत्माओं के आत्मा हैं (इसलिए श्रीकृष्ण के लिए गोपियों का इतना स्नेह है)।’ गोपियों का तन-मन-धन–सभी कुछ प्राणप्रियतम श्रीकृष्ण था। वे संसार में जीती थीं श्रीकृष्ण के लिए, घर के सारे काम करती थीं श्रीकृष्ण के लिए। यहां तक कि उनकी निद्रा भी श्रीकृष्ण में ही होती थी। स्वप्न और सुषुप्ति दोनों में ही वे श्रीकृष्ण की मधुर लीलाओं को देखतीं और अनुभव करतीं थीं। भगवद्गीता में भगवान ने जो कुछ करने के लिए कहा है, गोपियों के जीवन में वे सब बातें स्वाभाविक विद्यमान थीं। गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश देते हुए कहा है– ‘वे निरन्तर मुझमें मन लगाने वाले तथा मुझमें ही प्राणों को अर्पण करने वाले मेरे परम भक्त परस्पर मेरी ही चर्चा करते हैं, मेरी ही लीला गा-गाकर संतुष्ट होते हैं और मुझमें ही रमण करते हैं; इस प्रकार प्रेमपूर्वक नित्ययुक्त होकर मुझे भजने वाले भक्तों के साथ अपनी ईश्वरीय बुद्धि का योग मैं करा देता हूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।’ गोपियों के मन में इस लोक और परलोक के किसी भी भोग की कामना नहीं थी। उन्होंने अपने मनों को कृष्ण के मन में और अपने प्राणों को कृष्ण के प्राणों में विलीन कर दिया था। कान्ह भए प्रानमय प्रान भए कान्हमय, हिय मैं न जानि परै कान्ह है कि प्रान है। गोपियों का हृदय श्रीकृष्णमय हो गया था; गोपियां भगवान की बनी-बनायी भक्त थीं। उन्होंने अपनी सारी इच्छाओं को श्रीकृष्ण की इच्छा में मिला दिया था। ‘जो गोपियां गायों का दूध दुहते समय, धान आदि कूटते समय, दही बिलोते समय, आँगन लीपते समय, बालकों को पालना झुलाते समय, रोते हुए शिशुओं को लोरी देते समय, घरों में छिड़काव करते तथा झाड़ू लगाते समय, प्रेमभरे हृदय से आँखों में आँसू भरकर गद्गद वाणी से श्रीकृष्ण का नाम-गुणगान किया करती हैं, उन श्रीकृष्ण में चित्त लगाने वाली गोपरमणियों को धन्य है।’ भगवान के आदेश पर जब उद्धवजी गोपियों को समझाने ब्रज में आए तब गोपियों ने कहा– स्याम तन स्याम मन, स्याम है हमारौ धन, आठौ जाम ऊधौ ! हमैं स्याम ही सौं काम है। स्याम हिए, स्याम जिए, स्याम बिनु नाहिं तिए, आंधे की सी लाकरी अधार स्यामनाम है।। स्याम गति स्याम मति, स्याम ही है प्रानपति, स्याम दुखदाई सौं भलाई सोभाधाम है। ऊधौ ! तुम भए बौरे, पाती लेकर आए दौरे, जोग कहाँ राखैं, यहां रोम-रोम स्याम है।। अर्थात् यहां तो श्याम के सिवा कुछ है ही नहीं; सारा हृदय तो उससे भरा है, रोम-रोम में वह छाया है। सोते-बैठते कभी साथ छोड़ता नहीं; फिर बताओ तुम्हारे ज्ञान और योग को कहां रखें? उद्धव गुरु बनकर गोपियों को योग की दीक्षा देने गए थे पर उनके चेले बनकर लौटे। वापिस मथुरा आकर श्रीकृष्ण को ‘यदुनाथ’ कहना भूलकर ‘गोपीनाथ’ पुकारने लगे। उद्धवजी ने कहा–’हे गोपाल, हे गोपीनाथ ! एक बार चलो न व्रज को। उस प्रेमलोक को छोड़कर यहां इस रूखी-सूखी मथुरा में कहां आ बसे।’ गीता में तो भगवान श्रीकृष्ण ने अपने ही मुख से बारम्बार अपने को साक्षात् सच्चिदानन्द परात्पर तत्त्व घोषित किया है। और इन भगवान का गोपियों ने ‘चोर-जार-शिखामणि’ नाम रखा है। (गोपियों के घर माखन खाकर और यमुनातट पर उनके वस्त्रों को कदम्ब पर रखकर भगवान श्रीकृष्ण ‘चोर’ कहलाए तथा शरद पूर्णिमा की रात्रि को गोपियों में आत्मरमण कर भगवान ‘जार’ कहलाए।) वे भगवान श्रीकृष्ण जिनके चरणों की पावन धूलि पाने के लिए ब्रह्मा और ज्ञानी उद्धव कीड़े-मकोड़े की योनि और लता-गुल्म आदि जड़ शरीर धारण करने में भी अपना सौभाग्य समझते हैं। श्रीउद्धवजी कहते हैं– वन्दे नन्दव्रजस्त्रीणां पादरेणुमभीक्ष्णश:। यासां हरिकथोद्गीतं पुनाति भुवनत्रयम्।। (श्रीमद्भागवत) अर्थात्–’अहो ! इन गोपियों की चरण-रज का सेवन करने वाले वृन्दावन में उत्पन्न हुए गुल्म, लता और ओषधियों में से मैं कुछ भी हो जाऊँ (जिससे उन गोपियों की चरण-रज मुझे भी प्राप्त हो); क्योंकि इन गोपियों ने बहुत ही कठिनता से त्याग किए जाने योग्य स्वजनों को और आर्यपथ को त्यागकर भगवान श्रीकृष्ण के मार्ग को प्राप्त किया है, जिसको श्रुतियां अनादिकाल से खोज रही हैं। ……… मैं उन नन्दव्रजवासिनी स्त्रियों की चरण-रेणु को बारम्बार नमस्कार करता हूँ, जिनके द्वारा किया गया भगवान की लीला-कथाओं का गान त्रिभुवन को पवित्र करता है।’ भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं अपने मुख से गोपियों की प्रशंसा करते हुए कहा है– ‘हे अर्जुन ! गोपियाँ अपने अंगों की सम्हाल इसलिए करती हैं कि उनसे मेरी सेवा होती है; गोपियों को छोड़कर मेरा निगूढ़ प्रेमपात्र और कोई नहीं है। वे मेरी सहायिका हैं, गुरु हैं, शिष्या हैं, दासी हैं, बन्धु हैं, प्रेयसी हैं–कुछ भी कहो, सभी हैं ! मैं सच कहता हूँ कि गोपियां मेरी क्या नहीं हैं। हे पार्थ ! मेरा माहात्म्य, मेरी पूजा, मेरी श्रद्धा और मेरे मनोरथ को तत्त्व से केवल गोपियां ही जानती हैं और कोई नहीं जानता।’ भगवान श्रीकृष्ण स्वयं महाभागा गोपियों के ऋणी रहना चाहते हैं। भगवान ने कहा– ’मैं जानता हूँ कि तुमने मेरे लिए, मेरी सेवा के लिए लोक-वेद-स्व सबका परित्याग कर दिया है। इसलिए मैं भी मन-ही-मन छिपकर तुम लोगों की सेवा करता हूँ। मैं तुम्हारा प्यारा हूँ और तुम हमारी प्यारी हो। अरी गोपियों, तुमने मुझसे ऐसा निश्छल, निष्कपट प्रेम किया है कि यदि मैं ब्रह्मा की आयु से भी तुम लोगों का बदला चुकाकर उद्धार पाना चाहूँ तो भी पार नहीं पा सकता, क्योंकि तुमने हमारे लिए घर छोड़ा है तथा जितने बन्धन थे, उन सबको छोड़ दिया है। तुम तो साधु हो और अपने शील-स्वभाव से ही हमें उऋण कर सकती हो।’ भाई हनुमानप्रसादजी पोद्दार के शब्दों में– बंदौं गोपी-जन-हृदय, जो हरि राखे गोय। पलकहुँ नहिं निकसत कबहुँ, मानि परम सुख सोय।। बंदौं गोपी-मन सरस, मिल्यौ जो हरि-मन जाय। हरि-मन गोपी मन बन्यौ, करत नित्य मनभाय।। बंदौं गोपी-नाम, जे हरि मुरली महँ टेर। सुख पावत हरि स्वयं करि कीर्तन बेरहिं बेर।। बंदौं गोपी-रूप, जो हरि-दृग रह्यौ समाय। निकसत नैकु न नयन तैं छिन-छिन अधिक लुभाव।। रसखानिजी के शब्दों में– जदपि जसोदा नंद अरु ग्बालबाल सब धन्य। पै या जग में प्रेम कौं गोपी भई अनन्य।।
श्री राधा राधा राधा राधा राधा
🌺🌳🌺🌳🌺🌳🌺🌳
No comments:
Post a Comment