Saturday, 28 May 2016

रसब्रह्म

रसब्रह्म

नवललितवयस्कौ नव्यलावण्यपुन्जौ
नवरसचलचित्तौ नूतनप्रेमवृत्तौ।
नवनिधुवनलीलाकौतुकेनातिलोलौ
स्मर निभृतनिकुन्जे राधिकाकृष्णचन्द्रौ।।
द्रुतकनकसुगौरस्निग्धमेघौघनील-
च्छविभिरखिलवृन्दारण्यमुद्भासयन्तौ।
मृदुलनवदुकूले नीलपीते दधानौ
स्मर निभृतनिकुन्जे राधिकाकृष्णचन्द्रौ।।

श्रुतियों में विभिन्न नामों से परात्पर ब्रह्म-तत्त्व का वर्णन किया गया है और प्रसंगानुसार वह सभी सत्य है तथा सभी में एक पूर्ण सामञ्जस्य है। अन्न, प्राण, मन, विज्ञान[1] आदि विभिन्न नामों का निर्देश करने के पश्चात श्रुति ने ‘आनन्द’ के नाम से ब्रह्म का वर्णन किया—

आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्, आनन्दाद्धयेव खल्विमानि भूतानि जायन्ते, आनन्देन जातानि जीवन्ति, आनन्दं प्रयन्त्यभिसंविशन्ति।

अर्थात यह निश्चयपूर्वक जान लिया कि ‘आनन्द’ ही ब्रह्म है, आनन्दस्वरूप परात्पर तत्त्व से ही ये समस्त प्राणी उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर आनन्द के द्वारा ही जीवित रहते हैं और अन्त में आनन्दस्वरूप में ही प्रविष्ट हो जाते हैं।

श्रुतियो ने विभिन्न प्रकार से ‘आनन्दब्रह्म’ का सविस्तार वर्णन किया। परंतु परात्पर तत्त्व के स्वरूप-निर्देश की चर्चा अभी अधूरी ही रह गयी। अतएव श्रुति ने परात्पर तत्त्व की रसस्वरूपता या ‘रसब्रह्म’ की रहस्यमयी चर्चा करते हुए संक्षेप से कहा—

यद्वै तत् सुकृतम्। रसो वै सः, रसँ ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति।[1]
‘जो स्वयं कर्ता-स्वयंरूप तत्त्व है, वही रस है - पूर्ण रसस्वरूप है। उस रसस्वरूप को प्राप्त करके ही जीव आनन्द युक्त होता है।’

जो ‘आनन्दब्रह्म’ जगत् का कारण है, यह ‘रसब्रह्म’ ही उसका मूल है। यह ‘रसब्रह्म’ ही ‘लीलापुरुषोत्तम’ और ‘रसिक ब्रह्म’ है। जैसे सविशेष धूप ही निर्विशेष या अमूर्त सुगन्ध का विस्तार करता है, वैसे ही एक सविशेष रसतत्त्व के अवलम्बन से ही ‘निर्विशेष आनन्त-तत्त्व’ का प्रकाश होता है। अतएव जैसे धूप ही सौरभ की प्रतिष्ठा है, वैसे ही ‘रस’ ही ‘आनन्द’ की प्रतिष्ठा है। सविशेष रसब्रह्म में ही निर्विशेष आनन्दब्रह्म प्रतिष्ठित है। रसरूप भगवान श्रीकृष्ण ने इसी से ‘ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम्’ की घोषणा करके इस सत्य सिद्धान्त को स्पष्ट किया है।

रस की उपलब्धि में भाव आवश्यकता
इस ‘रस’ की उपलब्धि ‘भाव’ के बिना नहीं होती। ‘भावुक’ हुए बिना ‘रसिक’ नहीं हुआ जाता। ‘भावग्राह्य’ या भावसाध्य रस का प्रकाशन - आस्वादन भाव के बिना सम्भव नहीं। अतएव जहाँ ‘रस’ का प्रकाश है, वहाँ भाव की विद्यमानता है ही। इसी से प्रेमरसास्वादनकारी ज्ञानी पुरुषों ने यह साक्षात्कार किया है कि सृष्टि के मूल में - प्रकाश और प्रलय सभी अवस्थाओं में - भावपरिरम्भित, भाव के द्वारा आलिंगित रस के उत्स - मूल स्रोत से ही रसानन्द की नित्य धारा प्रवाहित है।

इस प्रकार जिस रस और भाव की लीला से ही - उनकी नृत्युभंगिमा से ही समस्त विश्व का विविध विलासवैचित्र्य सतत विकसित, अनुप्राणित और आवर्तित है, सभी रसों और भावों का जो मूल आत्मा और प्राण है, वह एक महाभावपरिरम्भित रसराज या आनन्दरस-विलास-विलसित महाभावस्वरूपिणी श्रीराधा से समन्वित श्रीकृष्ण ही (दूसरे शब्दों में अभिन्नतत्त्व श्रीराधा-माधव ही) समस्त शास्त्रों के तथा महामनीषियों के द्वारा नित्य अन्वेषणीय परात्पर परिपूर्ण तत्व हैं। 
एक परम् दिव्यतम सन्त !!
जय जय श्यामाश्याम !!!

भाव का अभिप्राय - भक्ति

भाव का अभिप्राय - भक्ति
‘भाव’ शब्द का अभिप्राय ‘भक्ति’ से है। भगवान भावसाध्य - भावग्राह्य हैं, इसका अर्थ है - वे भक्ति से प्राप्त होते हैं। भगवान ने कहा है - मैं एकमात्र अनन्य भक्ति से ही ग्राह्य हूँ - ‘भक्त्याहमेकया ग्राह्यः’। यही परमानन्द का रसास्वादन है। भक्तिशून्य या भावरहित होकर कोई भी (किसी भी विषय से किसी भी परिस्थिति में) इस आनन्द को प्राप्त नहीं कर सकता और समस्त भक्ति की मूल आकर हैं - श्रीराधा। जैसे समूर्त रसराज श्रीकृष्ण से ही समस्त रसों का आविर्भाव हुआ है, वैसे ही मूर्तिमती महाभावस्वरूपिणी श्रीराधा से ही अमूर्त और मूर्त सभी भावों का - विभिन्न भक्ति-भावों का, भक्ति-स्वरूपों का विस्तार हुआ है और भावानुसार भक्ति-स्वरूपों में से स्वरूपानुसार ही रसतत्त्व की उपलब्धि होती है।
जैसे एक ही प्रकाश-ज्योति के नीले, पीले, लाल, हरे आदि विविध वर्णों के स्फटिकों पर पड़ने से विविध वर्णविशेष दिखायी देते हैं, वैसे ही भक्ति के रूप में प्रकट श्रीराधा ही अमूर्त भावविशेष के रूप में दास्य, सख्य, वात्सल्यादि भाव वाले विभिन्न भक्तों में उसी रूप में प्रकट होकर उसी के अनुसार उसी के उपयोगी रसतत्त्व को प्राप्त कराती है। पटरानी-रूप में, लक्ष्मी आदि के रूप में, गोपीरूप में जितनी भी भगवान की कान्ता देवियाँ हैं, वे सभी श्रीराधा की समूर्त अवस्थाविशेष हैं। जिस अवस्था में महाभावरूपा स्वयं राधा और रसराज श्रीकृष्ण प्रेमविलास-वारिधि में लीलायमान हैं, जहाँ ‘रमण’ और ‘रमणी’ की भेदबुद्धि की भी कल्पना नहीं रह जाती, वह सम्पूर्ण रस-भावाद्वैत ही विशुद्ध प्रेमविलास की असीम सीमा है— निरवधि अवधि है। श्रद्धेय पौद्दार भाई जी । जय जय श्यामाश्याम ।।

Thursday, 26 May 2016

हित वृन्दावन 6

हित वृन्‍दावन 6

यद्यपि राजत अवनि पर सबते ऊँची आहि।
ताकी सम कहिये कहा श्रीपति बंदत ताहि।।
तजि के वृन्‍दा विपिन कौं और तीर्थ ले जात।
छांडि विमल चिंतामणिहि कौडी कौं ललचात।।

प्रश्‍न यह होता है कि यदि भूतल-स्थित प्रगट -वृन्‍दावन ही नित्‍य - वृन्‍दावन है, तो उसकी इस प्रकार प्रतीति हर एक को क्‍यों नहीं होती ? श्री ध्रुवदास जी उत्‍तर देते है :-

‘इसमें दोष दृष्टि का है, द्दश्‍य कहा नहीं है। वृंदावन अपने अनंत प्रेम-वैभव को लेकर नित्‍य प्रकाशित है आंख रते हुए न दीखना माया का रूप हे। द्दश्‍यमान रज्‍जु में सर्प की मिथ्‍या प्रतीति को ही माया कहते हेा। सारे संसार को मोह-गर्त में डालने वाली यह श्रीकृष्‍ण की माया ही है, जिसके कारण वृंदावन-रूपी रत्‍न को अपने बीच में पाकर भी हम उसको पहिचान नहीं पाते और उसका निरादर कर देते है’-

प्रकट जगत में जगमगै वृंदा विपिन अनूप।
नैन अछत दीसत नहीं यहा माया कौ रूप।।
पाइ रतन चीह्रौ नहीं दीन्‍हौं करतें डार।
यह माया श्रीकृष्‍ण की मोह्यौ सब संसार।।[1]

जिन रसिक उपासकों की दृष्टि सहज प्रेम के उन्‍मेष से निर्मल बनी है, उनको भूतल -स्थिर वृन्‍दावन के खग, मृग, वन-बेली प्रेममय दिखलाई दिये हैं और उन्‍होनें इन सबका दुलार अपनी रचनाओं में किया है। वृंदावन के वृक्षों का गान करते हुए व्‍यासजी कहते हैं-‘मुझको वृन्‍दावन के वृक्ष प्‍यारे लगते है। जिनको देखकर सम्‍पूर्ण कामनायें विलीन हो जाती हैं वे राधा-मोहन इनके नीचे विहार करते हैं। यह प्रेमामृत से सींचे हुए हैं, इसीलिये इनके नीचे माया-काल प्रवेश नहीं कर पाते। इन वृक्षों की एक शाखा तोड़ने से श्री हरि को कोटि गौ-ब्रह्मणों की हत्‍या से अधिक कष्‍ट होता है। रसिकों को यह सब कल्‍पवृक्ष मालूम होते हैं और विमुखों को ढ़ाक -पिलूख दिखलाई देते हैं। इनका भजन जिह्रा के सम्‍पूर्ण स्‍वादों को छोड़ कर किया जाता है। गोपियों ने गृहादिक की सुख-संपत्ति को छोड़ कर इनका भजन किया था। यही रस पान करके परीक्षित ने भोजन छोड़ दिया था और शुक-मुनि को अपने ब्रह्मज्ञान से असंतोष हो गया था। मैंने पपीहा बन कर वृन्‍दावन घन का सेवन किया है और मेरे दुख के सर-सरिता सूख गये हैं। 'प्‍यारे वृन्‍दावन के रूख।
जिनितर राधा -मोहन विहरत देखत भाजत भूख।।
माया काल न व्‍यापै जिनितर सींचे प्रेम-पियूख।
कोटि गाय बांभन हत शाखा तोरत हरिहिं विदूख।।
रसिकनि पारिजात सूझत हैं विमुखनि ढ़ाक-पिलूख।
जो भजिये तौ तजिये पान मिठाई मेवा ऊख।।
जिनि के रस-बस गोपिनु छांडे सुख-सम्‍पति गृहतूख।
मणि कंचन मय कुंज विराजत रंध्रनि चन्‍द्र मयूख।।
जिहिं रस भोजन तज्‍यौ परीक्षित उपज्‍यौ शुकहिं अतूख।
व्‍यास पपीहा बन-घन सेयौ दुख-सलिता-सर सूख।।[1]

रसलीला का आधार होने के कारण वृन्‍दावन को रसोपासना का भी स्‍वाभाविक आधार माना गया है। उपासना की दृष्टि से वह रस का सहज धर्म है। आधार का काम धारण करना है और जो धारण करता है। वह धर्म कहलता है, ‘धारणात् धर्ममित्‍याहु:।‘ हितप्रभु के निज-धर्म का वर्णन करते हुए सेवक जी कहते हैं-‘वहां वृन्‍दावन की स्थिति है, जहां प्रेम का सागर बहता है'

अब निजु धर्म आपुनौं कहत, तहां नित्‍य वृंदावन रहत।
बहत प्रेम सागर जहां।।[2]

वृन्‍दावन की स्थिति के आधार पर ही प्रेम-सागर बहता है। वृन्‍दावन ने ही प्रेम के सागर को धारण कर रखा है और धारण करने के काराण ही धर्म है। श्री वृन्‍दावन किंवा प्रेम-धर्म का साधन नवधा-भक्ति है। ‘साधन सकल भक्ति जा तनौ।' जयजय श्यामाश्याम । क्रमशः ...

कृतज्ञता से भरें , ओशो

कृतज्ञता से भरें..

मुझे भोजन उपलब्ध हुआ है, यह बहुत बड़ी धन्यता है। मुझे एक दिन और जीने को मिला है, यह बहुत बड़ा ग्रेटिटयूड है। आज सुबह मैं फिर जीवित उठ आया हूं। आज फिर सूरज ने रोशनी की है। आज फिर चांद मुझे देखने को मिलेगा। आज मैं फिर जीवित हूं। जरूरी नहीं था कि मैं आज जीवित होता। आज मैं कब में भी हो सकता था, लेकिन आज मुझे फिर जीवन मिला है। और मेरे द्वारा कुछ भी कमाई नहीं की गई है, जीवन पाने को। जीवन मुझे मुफ्त में मिला है। इसके लिए कम से कम धन्यवाद का, मन में अनुग्रह का, ग्रेटिटयूड का कोई भाव होना चाहिए।
भोजन हम कर रहे हैं, पानी हम पी रहे हैं, श्वास हम ले रहे हैं, इस सबके प्रति अनुग्रह का बोध होना चाहिए। समस्त जीवन के प्रति, समस्त जगत के प्रति, समस्त सृष्टि के प्रति, समस्त प्रकृति के प्रति, परमात्मा के प्रति एक अनुग्रह का बोध होना चाहिए कि मुझे एक दिन और जीवन का मिला है। मुझे एक दिन और भोजन मिला है। मैंने एक दिन और सूरज देखा। मैंने आज और फूल खिले देखे। आज मैं और जीवित था।
रवींद्रनाथ की मृत्यु आई, उसके दो दिन पहले उन्होंने कहा—उन्होंने कहा कि हे परमात्मा, मैं कितना अनुगृहीत हूं कैसे कहूं! तूने मुझे जीवन दिया, जिसे जीवन पाने की कोई भी पात्रता न थी। तूने मुझे श्वासें दीं, जिसके श्वास पाने का कोई अधिकार न था। तूने मुझे सौंदर्य के, आनंद के अनुभव दिए, जिनके लिए मैंने कोई भी कमाई न की थी। तो मैं धन्य रहा हूं और तेरे बोझ से, अनुग्रह के बोझ से दब गया हूं। और अगर तेरे इस जीवन में मैंने कोई दुख पाया हो, कोई पीड़ा पाई हो, कोई चिंता पाई हो, तो वह मेरा कसूर रहा होगा। तेरा जीवन तो बहुत—बहुत आनंदपूर्ण था। वह मेरी कोई भूल रही होगी। तो मैं नहीं कहता हूं तुझसे कि मुझे मुक्ति दे दे जीवन से। अगर तू मुझे फिर से योग्य समझे तो बार—बार मुझे जीवन में भेज देना। तेरा जीवन अत्यंत आनंदपूर्ण था और मैं अनुगृहीत हूं।
यह जो भाव है, यह जो कृतज्ञता का भाव है, वह समस्त जीवन के साथ संयुक्त होना चाहिए।

ओशो

Wednesday, 25 May 2016

दृष्टि और मान्यता

दृष्टि और मान्यता --
हमारे पास एक कमाल की चीज़ है , दर्शन अर्थात् दृष्टि ।
इसमें गहन सामर्थ्य है , इतना गहन कि आप किसी को हय (कमजोर) देखो तो वह वैसा होने लगे ।
या किसी को महापुरुष स्वीकार करो तो वह उस स्थिति को अनुभूत् करने लगे । अर्थात् हम सुंदरता ही देखना चाहें तो कुरूपता की सत्ता सामने होगी ही नहीँ ।
एक ही व्यक्ति को कोई मित्र , कोई शत्रु और कोई गुरु स्वरूप भी मानते है । वहीँ व्यक्ति जो जैसा मानता है उस रस में होने लगता है । क्योंकि यह हमारी दृष्टि की मांग है । किसी के शत्रु होने पर गुरू हमारे लिये परम् हितैषी ही होंगे । कारण यहीँ दृष्टि उठी है ।
प्रेम की भावना सन्मुख प्रेम प्रकट कर देगी और द्वेष की भावना को ग्रहण करते ही सन्मुख व्यक्ति भी द्वेषित रहेगा ।
ईश्वर संग भी ऐसा ही है ईश्वर से सम्बन्ध , मिलन आदि सभी मान्यता पर निर्भर है अर्थात् हमारे नेत्र क्या देखते है ।
सभी और स्व से श्रेष्ट देखने पर स्वतः दीनता उदय होती है । और वास्तव में वहाँ च्हूँ और श्रेष्ट ही होता है । अतः भावना हो च्हूँ और राम की तब वहीँ ही होंगे ।
हम स्वयं को श्रेष्ट मान सामने हय और गौण को ही देखते और मानते है , और वैसा ही प्रतिफल पाते है । सत्यजीत तृषित

Tuesday, 24 May 2016

किसने कहा तुम्हें कि रोना कमजोरी का लक्षण है? ओशो

ओशो: अष्‍टावक्र: महागीता–(भाग–1) प्रवचन–4 (पोस्ट 31)

किसने कहा तुम्हें कि रोना कमजोरी का लक्षण है? मीरा खूब रोयी है! चैतन्य की आंखों से झर—झर आंसू बहे! नहीं, कमजोरी के लक्षण नहीं हैं—भाव के लक्षण हैं; भाव की शक्ति के लक्षण हैं। और ध्यान रखना, भाव विचार से गहरी बात है।

मैंने कहा : पहले कर्म की रेखा, फिर विचार की रेखा, फिर भाव की रेखा, फिर साक्षी का केंद्र। भाव साक्षी के निकटतम है। भक्ति भगवान के निकटतम है। कर्म बहुत दूर है। वहां से यात्रा बड़ी लंबी है। विचार भी काफी दूर है। वहां से भी यात्रा काफी लंबी है। भक्ति बिलकुल पास है।

खयाल रखना, आंसू जरूरी रूप से दुख के कारण नहीं होते। हालांकि लोग एक ही तरह के आंसुओ से परिचित हैं जो दुख के होते हैं। करुणा में भी आंसू बहते हैं। आनंद में भी आंसू बहते हैं। अहोभाव में भी आंसू बहते हैं। कृतज्ञता में भी आंसू बहते हैं। आंसू तो सिर्फ प्रतीक हैं कि कोई ऐसी घटना भीतर घट रही है जिसको सम्हालना मुश्किल है—दुख या सुख; कोई ऐसी घटना भीतर घट रही है जो इतनी ज्यादा है कि ऊपर से बहने लगी। फिर वह दुख हो, इतना ज्यादा दुख हो कि भीतर सम्हालना मुश्किल हो जाये तो आंसुओ से बहेगा। आंसू निकास हैं। या आनंद घना हो जाये तो आनंद भी आंसुओ से बहेगा। आंसू निकास हैं।

आंसू जरूरी रूप से दुख या सुख से जुड़े नहीं हैं—अतिरेक से जुड़े हैं। जिस चीज का भी अतिरेक हो जायेगा, आंसू उसी को लेकर बहने लगेंगे।

तो जो रोये, उनके भीतर कुछ अतिरेक हुआ होगा; उनके हृदय पर कोई चोट पड़ी होगी; उन्होंने कोई मर्मर सुना होगा अज्ञात का; दूर अज्ञात की किरण ने उनके हृदय को स्पर्श किया होगा; उनके अंधेरे में कुछ उतरा होगा; कोई तीर उनके हृदय को पीड़ा और आह्लाद से भर गया—रोक न पाये वे अपने आंसू।

मेरे बोलने के प्रभाव से इसका कोई संबंध नहीं, क्योंकि तुम भी सुन रहे थे। अगर मेरे बोलने का ही प्रभाव होता तो तुम भी रोये होते, सभी रोये होते। नहीं! मेरे बोलने से ज्यादा सुनने वाले की हार्दिकता का संबंध है। जो रो सकते थे वे रोए।

और रोना बड़ी शक्ति है। एक बहुत अनूठी दिशा को मनुष्य—जाति ने खो दिया है—विशेषकर मनुष्यों ने खो दिया है, पुरुषों ने, स्त्रियों ने थोड़ा बचा रखा है, स्त्रियां धन्यभागी हैं। मनुष्य की आंख में, पुरुष हो कि स्त्री, एक—सी ही आसुरों की ग्रंथियां हैं। प्रकृति ने आंसुओ की ग्रंथियां बराबर बनायी हैं। इसलिए प्रकृति का तो निर्देश स्पष्ट है कि दोनों की आंखें रोने के लिए बनी हैं। लेकिन पुरुष के अहंकार ने धीरे—धीरे अपने को नियंत्रण में कर लिया है। धीरे— धीरे पुरुष सोचने लगा है कि रोना स्त्रैण है; सिर्फ स्त्रियां रोती हैं। इस कारण पुरुष ने बहुत कुछ खोया है—भक्ति खोयी, भाव खोया। इस कारण पुरुष ने आनंद खोया, अहोभाव खोया। इस कारण पुरुष ने दुख की भी महिमा खोयी; क्योंकि दुख भी निखारता है, साफ करता है।

तुम चकित होओगे, दुनियां में स्त्रियों की बजाय दुगुने पुरुष पागल होते हैं! और यह संख्या बहुत बढ़ जाये, अगर युद्ध बंद हो जायें; क्योंकि युद्ध में पुरुषों का पागलपन काफी निकल जाता है, बड़ी मात्रा में निकल जाता है। अगर युद्ध बिलकुल बंद हो जाएं सौ साल के लिए, तो डर है कि पुरुषों में से नब्बे प्रतिशत पुरुष पागल हो जायेंगे।

धर्म का उत्थान कैसे हो ?

आज कुछ बात सामने आई , कई स्मरण नहीँ -

भूल न जाऊँ सो लिख रहा हूँ ।

1 - सन्त स्पर्श या सत्संग से आपमें वह आवेश आ जाता है । जो सन्मुख सन्त या सत्संगी में निहित है । जैसे चैतन्य महाप्रभु के स्पर्श से ही सन्मुख नास्तिक भी गहन रूदन को प्राप्त होते , जबकि उतनी गहनता पर वें उतरे नहीँ , जहाँ महाप्रभु है ।
हम जानना चाहते है और सन्त स्पर्श और संग हमें सहज समर्पण होने पर सन्त जो जानते है वह मना ही देता है । अर्थात् जानने की प्रक्रिया से नहीँ गुजरना होता । आप मानी हुई अवस्था पर होते है , अब आपमें और उनमें इतना ही भेद रह जाता है , आप जिस बात को मानते हो उसे वह जानते भी है , उसकी गहनता से वह गुजरे है और वहाँ आप के छु जाने से स्वतः वह अवस्था अनुभूत् हुई । ईश्वर संग भी यह होता है । वह जो जानते है हमें मान लेना भर है , जानने की आवश्यकता नहीँ ।

2 - आज सोचा धर्म का उत्थान कैसे हो ?
सोचा तो था कि किसी ग्रन्थ या विषय से कोई सफल हो जावें उत्थान पा जावें तो उस ग्रन्थ का उत्थान कैसे हो ?
उत्तर आया बड़ा ही गहन अर्थ उसमें , धर्म का पृथक् उत्थान चाहने की आवश्यकता ही नहीँ , अपने उत्थान और विकास का कारण और स्रोत उसे ही मानने से ही धर्म का सहज उत्थान होगा ।
जैसे माँ को पृथक् गौरव की आवश्यकता नहीँ , अपने गौरव का दायित्व और कारण माँ है यह मान लेने से आप अनुभूत् करेगें माँ का उत्थान आपसे ऊपर ही है ।
आश्रय और अवलम्बन को स्वीकार कर लेने की बात है ।
सत्यजीत तृषित ।
यह बात इसलिये कि क्योंकि आज धर्म की पृथक् उत्थान की चाह है । आपका उत्थान या विकास धर्म से पृथक् नहीँ हो सकता । जो पृथक् चाहते है धर्म आदि का उत्थान वह अपनी अवस्था को स्वयं की प्राप्त मानते है उसमें धर्म की सिलाई दिखाई नहीँ देती उन्हें ।

Monday, 23 May 2016

हित वृन्दावन 5

हित वृन्‍दावन 5

प्रेम के सहज-विलास में पेरक प्रेम की दो परिणतियां होती हैं-वृन्‍दावन और सहचरी गण। जड़ता ओर चतनता प्रेम की दो अवस्‍थायें हैं। एक अवस्‍था में जो प्रेम जड़वत् प्रतीत होता है, वही अपनी दूसरी अवस्‍था में चेतन दिखलाई देता है। श्रीहित प्रभु ने श्री राधा के हृदय में रस के द्वारा उत्‍पन्‍न जडि़मा को अपने एक श्‍लोक में लक्षित किया है - ‘श्री राधे, हृदि ते रसेन जडि़मा ध्‍यानेअस्‍तु में गोचर:।‘ श्रीराधा के हृदय में रस-जडि़मा सदैव छाई रहती है और उस के ऊपर चेतन-प्रेम के सम्‍पूर्ण विलास होते रहते हैं। जडि़मा प्रेम की घनीभूत स्थिति है। प्रेम सघन बन कर जड़वत् प्रतीत होता है। प्रेम के नित्‍य विहार में जड़ीभूत प्रेम के आधार पर चेतन प्रेम की क्रीड़ा होती हे और उसके द्वारा एक अद्भुत प्रेम-स्‍वरूप का प्रकाश होता है। प्रेम की जड़ता वृन्‍दावन में और चपलता सहचरियों में मूर्तिमती हुई है।

यह जड़ता प्रेम की जड़ता होने के कारण, स्‍वभावत: चिन्‍मय होती है, ज्ञानमय होती है। हितप्रभु की-

बन की कुंजनि-कुंजनि डोलनि,
निकसत निपट सांकरी बीथिन परसत नांहि निचोलनि।।[1]

इन पंक्तियों का आशय स्‍पष्‍ट करते हुए सेवक जी ने कहा है - ‘श्री हरिवंश ने, उक्‍त पद में, श्‍यामश्‍यामा के उस बन विहार का वर्णन किया है जिसमें वे दोनों अत्‍यन्‍त सघन वीथियों में से इस प्रकार निकल जाते हैं कि उनके वस्‍त्रों का स्‍पर्श भी लताओं से नहीं होता और यह उस स्थिति में जब दोनों प्रेम से विह्रल होते हैं और उनको अपनी देह का भी अनुसंधान नहीं-होता। वे प्रेम-मग्‍न दशा में एक क्षण के लिेय एक दूसरे से हट कर इधर -उधर चलने लगते हैा और फिर व्‍याकुल होकर डगमगाते हुए एक दूसरे से मिल जाते हैं। उनका अत्‍यन्‍त स्‍नेह देखकर वृन्‍दावन ही उनको मार्ग देता चला जाता चलता है।'
कही नित केलि रस खेल वृन्‍दाविपिन
कुंजतैं कुंज डोलनि बखानी।
पट न परसंत, निकसंत बीथिनु सघन- प्रेम विह्रल सुनहिं देहमानी।।
मगन जित तित चलते दिन्‍ सुडगमग मिलत,
पंथ बन देत अति हेत जानी।
रसिक हित परम आनंद अवलोकितन,
सरस विस्‍तरत हरिवंश बानी।।[1]

ध्रुवदासजी ने बतलाया है-‘जिन कोमल फूली लतओं में युगल रस-विहार करते हैं, वहीं की बल्‍लरियां सकुच कर प्रेम-विवस हो जाती हैं’-

कोमल फूली लतनि में करत केलि रस मोहि।
तहँ-तहँ की बल्‍ली सबै सकुचि बिवस ह्रै जांहि॥[2]

हित प्रभु ने प्रेम-स्‍वरूप वृन्‍दावन को इस भूतल पर ही स्थित माना हे और इसके अतिरिक्‍त किसी अन्‍य गौलोकस्‍थ वृन्‍दावन का उल्‍लेख कही नहीं किया। प्रेमोपासना भाव की उपासना है और प्रकट-भाव ही उपासनीय होता है। अप्रकट-भाव को उपासना नहीं की जा सकती। प्रकट-वृन्‍दावन ही नित्‍य -वृन्‍दावन है। ध्रुवदास जी बतलाते हैं-यद्यपि वृन्‍दावन पृथवी पर स्थित है, किन्‍तु वह सबसे ऊॅचा है। जिसकी वंदना स्‍वयं विष्‍णु करते हैं, उसकी समता मैं किसके साथ करूं? ‘जो लोग वृन्‍दावन को छोड़ कर अन्‍य तीर्थो में जाते है वे विमल चिंतामणि की छोड़ कर कौड़ी के लिये ललचाते हैं।‘ (यह पांचवा भाग है , 4 पहले दिए गए है)
जय जय श्यामाश्याम । ।

विष पीजिये

हम सब गहन त्यागी बन चुके ।
कहते है कुछ नहीँ चाहिये ।
यह नहीँ , वह नहीँ ।
मोक्ष तक नहीँ , फिर कहते है ,
रस चाहिये , आनन्द चाहिये ।।।
यह भी तो चाहिये ।।।
रस के लिये भी रस आतुरता नहीँ ,
प्यास नहीँ । बस कहीँ स्टॉल लगी हो
रस की । और वहीँ पी लें ।।।
रस को खरीदा - बेचने सा भी समझते है ।

रस के लिये दो टुक में कहू ,
रस ही लक्ष्य है सच में "विष" पीजिये ।।।
रस मिल भी गया न पीजिये ।।।
विष पीजिये , निःसंकोच ।।।
अब इसमें कारण और क्यों ?
लगाते ही लोभ और कामना विष की
और सहज घूम जायेगी ।।।
विष इसलिये नहीँ पीना कि
रस पीना था , विष ही रस होगा ।
अपितु इसलिये पीना है विष की
रस की योग्यता नहीँ और रस हमारे लिये
हो नहीँ सकता । हम विष पी सके इस स्थिति
पर ही नहीँ , रस तो बड़ी बात ।  बिन जाने
विष पीना होगा उसी लोभ से जिस लोभ से
रस को सोचा । आगे क्या होगा कहते ही
कर्मफल का त्याग नहीँ होगा ।।। अतः मौन हो
कर रस नहीँ विष पीजिये ।।।
आप अगर रस पीते है तो या तो आपके हिस्से का
विष आप पी चुके है , या पियेंगे । और स्वयं रस
पीना यानी शेष का विष पीना । 
स्वयं विष पीना यानी सभी का रस पीना ,
आगे अहित कैसे सम्भव है ।
तर्क वितर्क नहीँ सोच , इसे कर ही लीजिये ।
सत्यजीत तृषित ।।।