भगवान का बनकर , भगवान के लिये , भगवान का भजन ...
सरल सी बात , लगता है हम सब यें ही करते है | परन्तु ऐसा हो जाये तो प्रभु जी की कृपा |
भगवान का बनकर ... अर्थात् सम्बन्ध हो ! प्रेम हो ! मैं आपका ही हूँ इस तथ्य को हृदय ग्रहण लें ! न कि संसार का हो कर ! यें बात निवृति भी कहती है और अनुराग भी ! तीव्र अनुराग में संसार को छोडना भी नहीं होता ... छुट जाता है ! यदा कदा स्मृति होती है ओह ! संसार में हूँ ! भगवत् चरणों में ऐसी अनन्य प्रीति हो जाये कि चरण स्मृति चेतन पर अटल हो जाये ! अपना लोक-परिवेश सब वहीं हो जायें ! ख़ुद से छुट कर ही किसी का हुआ जाता है ! प्रेम का रस भी जब ही है जब निज स्मृति न हो ! बस खुमारी रहे सदा ! एक बार प्रेम रोगी हुये कि बस सब सरल हो जाना ही है ! पिया मिलन की आस सच्ची हो ! पहले संसार को छोडने के प्रयास में संसार छुट नहीं पाता ! पहले प्रेम हो जाये ! सम्बन्ध हो जाये ! प्यास जग उठे मिलन की तब पीर भरी पुकार उठती है ! और स्वत: पग पग निवृति होती है जैसे - जैसे पिया मिलन को पग बढते है !
भजन भगवान का हुये बिना हुआ तो केवल कामनाओं तक अटक जायेगा ! फल मिला की भगवान की आवश्यकता हटी ! जगत् में भगवान का होने की धारणा है पर भीतर से सम्बन्ध नहीं ! तीव्र प्रेम की मधुर पुकार नहीं ! केवल कामनावश सम्बन्ध है ! भगवान का होना अर्थात् ख़ुद का न होना ! अहंकार गया ! परन्तु यहाँ हम कहाँ "मै" मुक्त है ! कई बार देखा शिव मन्दिर में किसी ने बहुत भाव से प्रेम से भव्य श्रृंगार किया और कुछ ही देर में दूसरे ने अपनी पूजन हेतु श्रृंगार हटा दिया ! यहाँ भगवान् से प्रेम हो तो अपने अर्चन हेतु सुन्दर स्वरूप न हटाया जावें ! यहाँ केवल कामना और अहंकार है ! सुन्दर पुष्प खुद की खरीद के नहीं तो हटा दिये जब्कि सजा कौन है ? यें ना दिखा वरन् सुन्दर रूप देख द्रवित हो मानस या पंचोपचार आदि पूजन कर ली जायें और सुन्दर दर्शन से तृप्त हो जाया जाये ! परन्तु यहाँ प्रेम-अखियाँ कहाँ ? सो लगता है कि प्रेम है परन्तु है नहीं ... केवल अपने अर्चन-साधन आदि का अभिमान है ! अपने से बन पडी भगवत्सेवा का भी अभिमान ! कई बार देखा कि कोई पुष्प लाया ... प्रसाद लाया तो वहाँ ध्यान अपनी वस्तु पर ही अटक जाता है कि कहाँ चढी ? भगवत् दर्शन न हो कर केवल अपने पुष्प - माला - द्रव्य-श्रृंगार पर ही नजरें होती है कारण ...मेरा है ! यें भाव ! जबकि प्रेम होने पर प्रत्येक सेवा साधन साक्षात् कृपा ही समझ बनते है । भगवान का बनना हुआ अहम् की निवृति , समर्पण , शरणागति । परन्तु अहम् सहज नही संग छोड़ता । मेरा संसार कहो या मेरी सेवा । मेरा भजन । मेरा भाव । मेरी साधना । मेरी सिद्धि आदि में वही अहंकार ही तो है ।
भगवान का होना है यानि जैसा चाहे वहीँ । अपनी बुद्धि , अपने विचारों से उठ जैसा चाहे वैसा । एक बार किसी ने कहा .. सब ही कहते है कि भगवान की ईच्छा । भगवान की ईच्छा तो जब होगी जब हमारी न हो । हमारी ईच्छा कामना को ही भगवत् ईच्छा कह लेते है । भगवान की ईच्छा संकीर्ण नहीँ होती ।
भगवान के लिए ... ये भी लगता है कि सब ही तो भगवान के लिए भजन करते है पर ऐसा सब नही करते बस सच्चे प्रेमी और सच्चे साधक ।
हम भजन या तो कामना वष करते है । कामना कई बार भीतर लघुता में होती है । या भजन संसार के लिए करते है । संकल्प रहित या भगवान के लिए ऐसा संकल्प कहा कोई करता है । सारा जीवन का चिट्ठा एक दिन की पूजा के संकल्प में कह कर भगवत् प्राप्त जीवन में मन माने बदलाव की अपील होती है । जो कि अप्रत्यक्ष भगवान के विधान का अपमान ही है । उनकी अवमानना ।
भजन होता है संसार ,कामना ,या खुद के लिए । भगवान के लिए भजन कौन करता है । भीष्म पितामह बाणो की शैय्या पर भजन किये । हमे भजन के लिए अनुकूल माहौल अर्थात संसार ही बसाना होता है । भुक्ति मुक्ति की कामना होती ही है । भुक्ति अर्थात् इस लोक में ऐश्वर्य सुख आदि। मुक्ति अर्थात् पारलौकिक सुख । यहाँ भगवान के लिए किसने भजन किया ?
इसके लिए निष्काम भजन हो संकल्प रहित या भगवत्तार्थ का मानस हो ।
भजन जप आदि के बाद कहा जाता है अनेन जप कर्मणा नारायण अर्पनम् अस्तु । परन्तु कहा जाता है देता कोई नही । किसी के चित् में नही आता की भजन दिया जा चूका है अब अधिकार में नही । हम सब कहते है उस दिन मेरा भजन इतना अच्छा और ऐसा हुआ जो दे दिया तो वो मेरा विस्मृत होना चाहिए । विनियोग का जल छोड़ना सरल है भजन नहीँ दिया जाता । सिद्ध वही होते है जो भजन भगवान के लिए नही करते । निज सिद्धि आदि की कामना में करते है ।
अतः निष्काम प्रेमानन्द भजन भाव केवल प्रेम में हो सकता है या सच्चे साधक में । भगवान के लिए का अर्थ हुआ प्रेममय - भावमय अनुरागित निष्काम भजन ।
भगवान का ... जी , भगवान का होकर भगवान के लिए जो भजन हो वो भगवान का ही हो । अन्यत्र नए-नए तरीके आदि न हो । भगवत् नाम ही कल्याणकारी है । भगवान ही प्रेम मय ,प्रेम स्वरूप है उनसे ही नित्य सम्बन्ध हो सकता है ।
भगवान का भजन भी नही होता । भजन अपने भावपक्ष , सिद्धान्त आदि में बन्ध जाता है कि या तो भगवान का होता नही , हो तो भगवान का भजन के समय भीतरी अनुराग न होने से ... भावना न होने से उसी दिशा में होता है जो विचार भीतर चल रहा है । भगवान का ही भजन हों । अन्यत्र भावना न कर भगवतभावना केवल भगवान ही भजन में भीतर रहे ऐसी असीम कृपा की अरदास हो ।
तीनो बाते गम्भीरता जी की है । भगवान का होकर , भगवान के लिए ,भगवान का भजन के गूढ़ में सारी अन्तः करण शुद्धि और विकार निवृति है ।। सच्ची प्रेममयी साधना है । और ये ही भाव भगवत् कृपा है । विनती करें कि ऐसा भजन नित्य हुआ जा सके । और भजन कर इसके सार में सब अतिरिक्त साधन आदि की रसहीनता प्रतीत हो --- सत्यजीत तृषित ।।।
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