Thursday, 29 October 2015

तथ्य-भाव संग्रह तृषित 1

किञ्चित् सूत्र भगवत् कृपा और भगवत् कृपा से सुलभ गूढ़ परन्तु सहज सत्संग से कुछ बातें सारवत् निकलती है ।

1 बात बड़ी सरल है लगेगा इसमे क्या है परन्तु ऐसा होना सरल नही ___ भगवान का बन कर , भगवान के लिए , भगवान का भजन करो । ___ अब लगेगा सरल है पर है नही । अगर किसी ने अनुभवपूर्ण सार्थक जीवन जिया भी तो इतनी सरल बात वाले भगवत् प्रेमी अँगुलियो पर गिने जा सकेंगे ।

2 धारण कर ले हम सब भोक्ता नही भोग्य है । भोक्ता केवल ईश्वर है । ये भी सरल है परन्तु सरलता से ग्राह्य नही । भोग्य ( जिसे भोगा जा रहा हो )  भोक्ता ( जो भोग कर रहा हो )

3 सहज अबोधता जीवन भर रहे । इतनी सहज की हमारे माता पिता रूपी प्रभु अपने से एक क्षण दूर न जाये । और दूर होने का आभास भी होजाये तो चित् पूर्ण व्याकुल हो कर पुकारे ।

4 भगवत् विधान में बाधक अतिलघु विचारो की निवृति हो । ऐसा हो जाता या ऐसा हो जाये आदि न विचार हो । राम रूचि से अति प्रेम हो । स्व कल्याण को भी न सोच इतना ही विचारे जैसा वे चाहे वही प्रसाद वही उनका प्रेम । जब तक निज चिंता है कल्याण होगा ही नही ।

5 भगवत् कृपा को जीवन में पूर्ण अंगीकार करे । साधन कर्म निष्काम हो परन्तु भगवत् सम्बन्ध होगा केवल कृपा से । भगवत् प्राप्ति होगी कृपा से । चाह भी रहे । भजन भी हो । परन्तु होगा भगवत् कृपा से ही इस तथ्य की भीतर से पुष्टि हो ।

6 भगवत् प्राप्ति सरलतम है क्योकि भगवान प्राप्त ही है बस अन्तः निर्मलीकरण हेतु प्राप्त ईश्वर के दर्शन हेतु सब साधन और मार्ग है । और भगवान जिस भी संस्कार से प्राप्त हो उसे दुःसह नही कहा जा सकता क्योंकि प्राप्य की असिमता इतनी है कि मार्ग का प्रत्येक कंकर धन्यवाद का पात्र है । भगवान सर्वत्र हो कर किसी विशेष भाव प्रकाश में दर्शन दे तो ये केवल उनकी अपनी ईच्छा ( कृपा ) है ।

7 प्रत्येक अवतार प्रत्येक रूप केवल प्रेमियों की भावना अनुरूप ही यथोचित् हुआ है । अतः गीता जी के अनुसार वे उतने ही प्राप्त होंगे जितनी भावना है । अतः पूर्ण माधुर्य स्वरूप का रस पिया जा सके इतना विस्तार ... इतनी रिक्तता भीतर फैले ।

8 भगवत् प्राप्ति से भी बड़ी बात है भगवत्प्रेम । प्रेम बिना प्राप्त भगवान भी भगवान नहीँ समझ आते ।

9 जितना बोध जिस जीव को हो चूका है उतने में भगवत् मिलन हो सकता है । परन्तु तीव्र उत्कंठा जगने की बात है

10 सारा खेल दृष्टि का है । एक ही जगह भगवान और वहीँ दृष्टी भेद से असुर दिख सकता है । सर्वत्र व्याप्त हरि के दर्शन हेतु चक्षु मिले ये कृपा से ही है । नेत्र होने पर जड़ - पशु - विष्टा आदि तक में भगवत् अनुभूतियाँ होती है । कृपा न हो तो श्री विग्रह दर्शन  और साक्षात् स्वरूप मिलन में भी भगवत् प्रतीति नही होती ।

11 मैं भगवान का हूँ ; भगवान ही मेरे है यहाँ से भगवत् प्रेम पथ शुरू होता है । और जब भगवान स्वयं कह दे ... उस और का सन्देश मिल जाये वे स्वयं घोषणा कर दे ... तुम मेरे हो ... यहाँ यात्रा पूर्ण होती है । अतः स्वयं को भगवान का कह कर भगवान का होने के अहंकार को भूला कर इस और उत्कंठित रहे कि वे स्वयं इस बात को आपसे कहे । वे स्वयं मिले । सर्वत्र भगवान ही है और सब कुछ भगवान का ही है इस बात का बोध होना कि हम केवल परमात्मा के ही है ये भी कृपा है इस बात का अभिमान न हो । स्वयं को ईश्वर का घोषित करना निजता से मुक्ति है । और ये बात चित् में आजाये तो मुक्ति की भी आवश्यकता नही ; संस्कारों की भी । फिर निज देह का पोषण भी भगवत् सेवा है क्योंकि जो उनका है उसकी सेवा उनका ही अनुग्रह है ।

12 आत्मिय स्वरूप का बोध प्रारम्भिक अनिवार्य है । देह और इस जन्म को ही सत्य नहीँ मानना । हम चेतना है जड़ से आसक्ति न हो । सर्वत्र जो भी नाशवान हो वहां आसक्ति न हो । आसक्ति छुटते न बने तो उसे भगवत् अनुराग में रूपांतरित करे । भगवत् अनुराग इतना तीव्र हो की और कुछ कामना न रहे ।

13 मैं कौन हूँ ? ईश्वर कौन है ? जगत् क्या है ? माया क्या है ?
कैसे ? क्यों ? कब ? ये प्रश्न कितनी गहराई से उठे है जरूरी है । केवल अहंकार को पोषित तो नहीँ कर रहे । क्या वाकई इतनी न्यूनता आत्मतत्व की है । अगर पथ प्रशस्त नही तो भीतर उतरे बिना कैसे भगवत् प्रेम होगा ? विचार करें क्या सच्ची निष्ठा होने पर भी किंचित् भगवत् अनुभूति नहीँ हुई ।

14 भगवत् अनुभूतियाँ अग़र गहरी है | अप्राकृत सम्बन्ध हो चूका है । भगवत् संवाद भी है तो भी अहंका5र से बचे । क्योंकि कलयुग में न्यूनतम् भजन में भी तीव्र उन्नति कही है । थोड़े प्रयास में अनुभूतियाँ कलयुग का प्रसाद है । और अहंकार यहाँ भी हुआ तो सहज सम्बन्ध पाकर भी निराश ही होना होगा ।

15 आप भजन क्यों करते है ?अथवा नहीँ करते तो क्यों नही ? इनका मानसिक विवेचन करें । कहीँ कामना वश तो नही भजन जिस भी प्रयोजन से हुआ वहीँ प्राप्ति होगी । कामना रहित निष्काम भजन ही नित्य सम्बन्ध रख पायेगा । वरन् भगवान का भजन करते हुए भी आकर्षण और केंद्र कामना ही होती है । अपनी और से मुक्तिवश भी भजन न हो । निष्काम भजन ही ईश्वरिय अनुराग और निकटता का पोषक है ।

16  संसार के दुःख को दूर करने के प्रयोजन से भजन न हो । दुःख से भक्ति की और आये है किंचित् ताप , कष्ट से भगवतोन्मुखी हुए है तो ताप निवृति या कष्ट हटने पर पुनः संसार के क्षणभंगुर सुख की और कदम न हो ।

17 सबसे सरल साधन यही है कि भगवान ही सदा हमारे है हम सदा ही बिना किसी प्रयास प्रभु के ही है । इसे मान लेना । अब चित् में ये बात कब उतरे यही पथ है । एक दिन - एक वर्ष या जन्मों तक सफर मानना इसे ही पड़ेगा ।

18  सन्त , भगवान , प्रकृति को पूजना ही नहीँ है । अनुग्रह पाना है ... अनुसरण करना है । उनके भावो को जीवन्त जीवन में लाना ही सच्ची पूजा है । नमन कर आगे बढ़ने की अपेक्षा उनसे भाव भीतर उतरने दे । करुणा - क्षमा - दीनता - प्रेम - सहिष्णुता और अपरिहार्य को जीवन में उतारे न कि केवल वार्ता तक सिमित रहे ।

19 सबमे भगवान है । सब भगवतांश है और जो भी दिखता है या नहीँ दिखता है  भगवान स्वरूप है । तीनोँ ही सत्य है स्थिति अनुरूप जगत के दर्शन में भगवत् दर्शन होते है ...जैसे कहा जाये कि पुष्प में भगवान है । पुष्प भगवान का अंश है या पुष्प भगवान ही है । जैसा दिखता है वैसा पूरा ही भगवान ही है ।
शेष फिर जब कृपा हो -- सत्यजीत तृषित ।।

भगवत्कृपा सूत्रावली कुछ और भाव .....
20 . सेवा सौभाग्य है , उनकी कृपा से है । उनके भाव से । अपनी की सेवा का बार बार सुमिरन करना । वर्तमान को खोना है । जो किया उसकी विस्मृति हो । और प्यास बढ़े । जो भाव सेवा हुई उसमे अभाव अनुभूत् हो , तब और तीव्र प्यास बढ़े ।

21 व्यवहार में भक्ति हो । व्यवहार में संग हो प्रभु जी का । केवल मन्दिर तक नहीँ । सदा संग व्यवहार में लीला दिखेगी तो व्यवहार की ही लीला नित्य लीला रस तक लें जायेगी ।

22 लीला का दर्शक नहीं हुआ जा सकता । लीला को अनुभूत् भी नहीँ किया जा सकता । लीला का रसास्वादन हो सकता है । लीला का दर्शन हो तब और आगे बढ़े , लीला का मूल रंग कुछ और है । आप जैसा भाव रखते है वहाँ से सफर शुरू होगा और जैसा उनका निज रूप स्वभाव है वहाँ तक जाएगा । अर्थात् व्यवहारिक लीला से नित्य लीला रस तक ।

23 रस की बातें कथित हो नहीं सकती । रस निर्मल है , शब्दों में गुण और अर्थ है .... सत् रज तम् शब्द के रूप हो हो सकते है । रस शब्द होकर अर्थ उतना ही लेगा जितना बौद्धिक विकास है । और बुद्धत्व पूर्ण हो अथवा प्रेम पूर्ण हो तब ही रस का निर्मलत्व प्रगट होगा । नित्य , अकथनिय , शब्दों से परे ।
शब्दों में कहा रस भी सत्य है परन्तु कथन की सीमा है और रस असीमित है । शब्द में कारण हो सकते है , कामना हो सकती है |  प्रेम निर्विकल्प है , निर्गुण है । कारणहीन है ।

24 तत्सुख । उनका सुख । जीवन स्व सुख के पीछे भागने का आदि है । उस डगर को पकड़ता ही नहीँ जहाँ सुख ना हो । ईश्वर की ओर सुख है , कलुषित मन भी नाम लेकर सुख प्राप्त कर समझ सकता है । सुख न होता और ईश्वर होते , तब मूल प्रेमी दिखाई देते । वें तो आनन्द रूप ही है । वस्तुतः पहले जीवन का स्वभाव ज्ञात हो , वो है प्रेम । फिर जीवन का मूल सुख वो है नित्य रहने वाला भगवतशरणागति में मिलने वाली कृपा । और वहीँ कृपा है तत्सुख अर्थात् ईश्वर का सुख , और वहीँ प्रयास जो उनकी चाहत हो । उनका भाव हो । तत्सुख में मिलने वाला सेवा रस ही मूल सुख है । अतः यात्रा जारी रखनी ही है । अथाह प्यास रहनी ही है ।

25 त्याग । जीवन में चाह है । प्राप्तियाँ है , लोभ है , संग्रह है । त्याग नहीँ , त्याग होता भी है तो केवल दिखाई भर देता है , वहाँ पूण्य का लोभ है । त्याग के लिए पहले कुछ अपना हो , वस्तुतः गहराईयो में कुछ अपना नही , सब वहीँ का है , वहीँ से है । उन्ही की माटी के नाना रूप है । कुछ ऐसा है ही नहीँ जिसे त्याग कर जताया जा सके । पुष्प पौधे पर हो तब भी उनका ही है । अर्पण हो तब भी । उतार कर , सुख कर कभी रज बन जाएं तब भी । मेरा कुछ नही । अतः त्याग क्या हो । सेवा वहीँ है जहाँ सेवा की जाने वाली वस्तु में मेरापन हो । परन्तु सब कुछ पूर्व में उनकी ही सृष्टि है तो यें जान केवल सेवा में , रस को श्रृंगार को , भोग को , भगवत् ईच्छा से ही उनमे लगा कर उनकी ही कृपा से निमित होने सुख को सौभाग्य ही मानना चाहिए । वस्तुतः जीव के पास कुछ अपना है तो भाव , जो मन स्थिति-स्वरूप की विभिन्नता से सबमें अलग तरह से उनका रस वर्धन कर सकते है । सब कुछ उनका है जान कर , शून्य होकर भी नित्य जो भी मेरा प्रतित वहीँ त्याग प्रेम में नित्य होना चाहिए । प्रेम देना जानता है , लेना नहीँ । संसारिक ,और आसक्त लेना देना नही । प्रेम में नित्य देकर भी वस्तु को यहाँ से वहाँ रखने भर का भाव भगवान ही देते है । प्रेम में सब उनका जान अपना मान ने की लीला त्याग रूपी रस के वर्धन के लिए हुई है । जबकि त्याग हुआ ही नही , अपितु प्रेम-विरह में बहने वाले अश्रु भी उनके पूर्व में ही है । और स्व ईच्छा से आ भी नहीँ पाते । अतः नित्य जो भी सर्वस्व जान पड रहा हो उसका त्याग हो चित् से । नित्य ही । ना कि यदा-कदा , वरन् त्याग अभिमान हो जायेगा । और ना त्यागी वस्तु में अपनत्व बढ़ेगा । "तृषित"

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