Monday, 19 October 2015

भगवत् प्रेम क्या सच में हम कर पा रहे है ?

भगवत् प्रेम क्या सच में हम कर पा रहे है ??

मैं भगवान का हूँ और केवल भगवान ही मेरे ! लो दे दिये सार वाक्य संत ! पूरे विवेचन - टीका करते हुये ! कितना सरल हो गया सब ! गीता जी , श्रीमद्भागवत् जी ! सब समा गई ! क्यों ? क्योंकि प्रेम वाक्य है यहाँ एकाकिकार कहता है | हल्का सा यहाँ "मैं" है पर जो मै प्रतित है वो है नहीं ! वक्ता का ही लोप है क्यों क्योंकि वो भगवान का है ! दिखाई अलग देता है क्रियायें भौतिक है सो किंचित् मैं आवश्यक है | वरन् कह दे कि मैं नही हूँ केवल भगवान् है तो सत्य वाक्य होते हुये यहाँ संदेह अधिक होगा , कारण दृष्टि !  प्रेमी को तो यें ही कहना चाहिये मैं हूँ ही नहीं ... यें सब कुछ अर्पण हो चुका ! जो उनका है उसे अपना कैसे कहूँ ? क्यों स्वयं को पृथक् करूं !  प्रेमी के लिये सर्वस्व हरि है ! यहाँ " वसुदेव सर्वम् "हो गया ! परन्तु वाक्य अन्य हेतु है तो यें ही उचित है मैं भगवान का हूँ भगवान ही मेरे है | यहाँ अनुभुति रस है ! एक लीला भाव रस वर्धन जब ही होगा जब एक होकर दो हुआ जाये ! पृथकता है ही नहीं परन्तु रस हेतु द्वेत (दो ) ! लीला रस  एक होते हुये बढे सम्भव नहीं ! और अब मैं नहीं कहने पर जगत् का ध्यान दैनिक क्रिया पर भी जाता है | अश्रद्धा होती है जो भगवत् महिमा-गरिमा हेतु यहाँ व्यर्थ हुई !

मैं भगवान का हूँ ! मेरे कर्म क्रिया कलाप सब उनसे है ! काया से , मन से , वचन से , बुद्धि से , स्वभाव से जो भी कुछ हो रहा है वो पूर्व में ही भगवत् अर्पण हो चुका है !

दैनिक जीवन , क्रिया कलाप में भी वें ही अनुभुत् है ! किसी भी क्षण अब अकेला नहीं ! सर्वत्र संग है ... अब प्रति क्षण उनका संग है वार्तालाप है सच्चा सुन्दर जगत हेतु नविन दर्शन है ! दिव्य रस ...  सर्वत्र प्राणनाथ ! प्रभु जी ! अब पुकारने में भी रस है ... क्योंकि बोध हो गया है कि कोई सुनता है ! अग़र पुकार निकली ही है तो जैजै ने सुनी ही है !
मान कर जाना और जान कर और माना और यें सिलसिला ज़ारी है क्योंकि वें ज्ञान के महासागर के भी महासागर है ! महासागर तो बिन्दु मात्र ही है ! नित क्षण जै जै का नविन रस , नविन बोध ! अकल्पनीय सम्बन्ध है ! यहाँ जितनी लघुता वहाँ उतनी ही विभुता ! तब भी प्रतिति और क्रियादि कुछ ऐसे है जैसे विभु जीव और सुक्ष्म जै जै !

भगवत् प्रेम क्यों ? अब हमारी सांसारिकता इतनी प्रचंड है कि भगवत् प्रेम समस्त भगवत् सम्बन्ध की बात भगवत् सत्संग में रुची आदि में भी विभिन्न भौतिक जड कारण हमारे भीतर है ! संत अनुग्रह ... अनुसरण से दूर नविन धारायें बह निकली है ! मात्सर्य सिद्ध हो रहा है या भगवत् प्रेम सझ नहीं आ रहा ! षड् विकार ठीक वैसे ही जैसे व्यसनी मादक द्रव्य छिपा कर सुरक्षा घेरे को पार करे वैसे ही हम विकार सहित भगवत् पथ अथवा द्वार पर है ! यें दृश्य जगत् कितना ही होशियार हो जाये ! सुक्ष्म जगत् के उपकरण बडे दिव्य है ! कोई विकार सहित भीतर न गया ! द्वार खुलता नहीं दिखता परन्तु हमारी ही भीड (भीड का अर्थ हम आडम्बरियों से है ) में कोई न कोई निर्मल , निश्चल , पवित्र , शुद्ध , अन्त: चेतन का चेतन ही यथा भाव - भावना अनुरूप भगवत् साक्ष्य अनुभुति को अनुभुत् करते है ! शेष हम वेश परिवेश बदल भगवत् धारणा को रोपित कर अपनी मायिक व्यापारिक बुद्धि ही लिये खडे रहते है !  न ही तनिक अहंकार ही छुटता है ... ना ही दैन्य बोध जागता है ... ना उत्कंठा-तृषा प्रबल होती है , न ही करुणा-प्रेम ही घटित होता है | न मात्सर्य ( जलन ) , न दम्भ ( बनावट ) ही छुटती है ! आश्चर्य है ... हम भगवत् पथिक है ! परम् प्रेम-ज्ञान मय पथ पर ! हममें से सविकार बहुत से भगवत् प्राप्ति कर चुके है ! बहुत से सविकार भगवत् स्वरूप ही हो गये है ! .... .... कटु सत्य , यहाँ भ्रष्ट पथिकों में मैं भी हूँ ! भगवत् पथ जब एक स्वप्न रहा तब अपनी असमर्थता और अकिंचनता - अधमता को  जान कर जो चित् में तस्वीर बनती वहाँ इतनी निर्मलता अनुभुत् होती कि क्षण भर में अन्त: बह ही उठता ! संत चरित्र ... भगवत् चरित से भी प्रभावी होते ! ऐसी करुणतम् स्थितियाँ जिनका चिंतन मात्र आत्मग्लिान और पश्चाताप के लिये बहुत हो !
परन्तु दो दर्शन ... दो पथ मिलें ! एक निर्मल पथ जहाँ केवल भगवत् अनुराग जगत् से वेराग्य और दैन्य-कारुण्य-प्रेम मय धारा बह रही हो ... जैसे चरित् पढे , वैसे ही दर्शन ! परन्तु इन प्रेमी जन को न संसार से सरोकार है न संसार को इनसे ! यहाँ प्राप्तियाँ तो निश्चित् है परन्तु जगत् ऐसी गहराईयों से वंचित् ही है !
दूसरा हम जैसों का ! क्षमा मेरे जैसों का ... जहाँ दम्भ हो ! पाखण्ड हो ! भगवत् नाम जब लिया जाये जब कोई दृष्टा या श्रोता हो ! न संसार छुटा हो न अनुराग जगा हो ! और इसी पथ के श्रोता और वक्ता भी हो जहाँ सत्संग लोकरंजनात्मक हो ! कोई उत्तरदायित्व न रहे कि क्या  निश्चित् ही श्रोता पर आन्तरिक प्रहार हुआ अथवा अगले कार्यक्रम का ढांचा बना लिया जाये !
दम्भ , द्वेष , अहंकार , काम , लोभ , मात्सर्य सब मेरे भीतर यथावत् है तो कहाँ भगवत् पथिक कहाया जाऊं ! भजन मेरा सकाम हो जैसे प्राईवेट मिटिंग ही बूक करनी हो भगवान के संग ! ऐसे में भगवत् अनुभुति न हो तो भजन केवल लौकिक दर्शन हो जाता है ! सच ! केवल संसार को निज भजनभाव दिखाने भर को भजन - अनुष्ठान - आयोजन किये जाते हो ! विचारा जाता है ... विस्मृत कर दो ! केवल आराध्य को लक्ष्य करो ! और निज पथ साधो ! और सब भुल आंख बंद कर अपने आराध्य के चिंतन में बह जाने से ही निज प्राप्ति है ! परन्तु ...
निर्मलीकरण सरल है ... सर्वस्व अर्पण से दैन्य ( दीनता ) की चादर ओड  निज पुरषार्थ की अपेक्षा लघु-दीर्घ आयोजन में सहृदय भगवत् कृपा को ही सर्व समर्थ मान अनवरत् तेल की धारा की तरह निरन्तर भजन-अनुराग हो ! परन्तु भक्त कहा जाना सरल है ... भक्त होना भी जीव के बस की बात नही ! संतो ने भक्ति को भी ईश्वर की स्वरूप ( आह्लादिनी ) शक्ति कहा है ! जिसे वें जीव की प्रबल भावना और अपनी ईच्छा से जीव के हृदय में निक्षिप्त करते है ! तब आगे का पथ खुलता है ...
भगवत् पथ पूर्ण कृपा निहित है ... कृपा प्राप्त न तो दम्भ करेगा क्योंकि यहाँ बेटरी ही नहीं पूरा रिमॉट कन्ट्रॉल उनका है ! और इस बात को जान न दम्भ हो सकेगा न अहंकार मात्सर्य आदि ! सारा स्वांग "मैं" की सुरक्षा में हम करते है ! यहाँ तक पूरा जीवन मैं के लिये ध्वस्त कर के भगवत् भावना का स्वांग - चोंगा तो धर लेते है पर भगवत् - प्रेम धरा पर न उतरते है और ना ही हम उतरना चाहते है क्योंकि वहाँ सांसारिकता और विकारों की आहुति आवश्यक है !
बहुत बार तो यत् किन्चित् अक्षरिय बोध भगवत् प्रेम कहा जाने लगता है ! पाठ्य सामग्री पर मनन चिंतन न हो कर स्व पठित को ही निरुपित कर धारणात्मक प्रतिपादन हो जाते है !

भगवान से प्रेम करता कौन है ... यूं तो सब तैयार है क्योंकि वें भगवान् है , सब के चित् में है घाटे का सौदा नहीं ... मिल रहे है तो मिल लो ! यहाँ भगवान् से नहीं उनकी शक्ति-स्वरूप से ही सम्बन्ध है वो भी कामना वश ! प्रेम निष्कपट , निश्काम है परन्तु यहाँ भावना है , ईश्वर के ईश्वर होने की ! अज्ञात रूप से सब जानते है ईश्वर कभी किसी भावना कर्म को न रख कर लौटा ही देते है ... फल देते ही है ! जिनके भीतर शुन्य भर भी कर्म-भजन आदि की प्राप्ति का बोध है वहां व्यापार ही है वहाँ कर्म फलित ही होगा ! और जहाँ व्यापार वहाँ प्रेम कहाँ ?
अगर हम अनुराग भजन करे ... परन्तु उनके फलित परिणामों को लौटाने का सामर्थ्य न रखे तो कैसे प्रेमी हुये क्योंकि प्रेमास्पद आपकी सेवा का चैक दे और आप चैक भी ले लें , प्रेमी भी कहलाये यें कैसे होगा ? होता यही है ... वासत्विक प्रेमी ही कर्मफल लौटा पाते है और फिर आता ईश्वर का प्रेम स्वरूप करुणतम् भाव समक्ष ! जिससे प्रेमी रसमय तृप्ति को पाता है न की भौतिक क्षणभंगुर सुख को ! न ही प्रेमी के चित् में भजन के प्रतिफल में भौतिक सुख साधन ही होता है |
और हाँ हम जीव फल प्राप्ति कर भी अपने कर्म को नहीं भुलते ! तो निष्कामता की क्या बात की जाये और बिना निष्काम प्रेम होगा ही नहीं हमें !
बहुत से भजन से स्व जीवन के उत्पीडन को ही शमन करते है और इसे ही प्रेम कहते है ! बहुतों का भजन प्रभात्मक हो गया है "सिद्ध" ऐसे परम् प्रेमी ईश्वरिय सृष्टि उपादान आदि कार्य में सुधार करते है अपने प्रेमास्पद को दोषी मान ! "सिद्ध साधक" होना महा कृपा और महा अनुभुति है ऐसे साधकों के भजन से ही सृष्टि क्रम नियत् ऊर्जावान होता है और ऐसे ही निश्काम भजन की ऊर्जा ईश्वर तक पहुंचती है वें ग्रहण करते है और उसे यथावत् फलवति करते ही है !
हमें भगवत् प्रेमी को देखना भी है ... मिल कर सताना भी ! भगवत्-प्रेमी एक अजुबा है हमारे लिये ! हम संसार को चित् से हटा नहीं सकते तो जिसने हटा ही लिया उनका सरल जीवन आश्चर्यमय लगता है ! मनुष्य जितना प्राकृतिक होगा उतना सरल और जितना भौतिक उतना विकरित परन्तु अब हम विकृत अधोमानव मनुष्यता से भी पतित किंचित् महत् आकांशाओं के चलते भगवत् प्रेमी और भक्त की छाप चाहते है | अपनी तुलना हम परम् मनस्वी- विरक्त -प्रेमी सरल हृदय से करते है यें कह कर कि इसे मिले तो हमें क्यों नहीं ? कर्म पद्धति में केवल कर्म योग को धारण कर निष्कामता से कर्म के भोग के त्याग से कर्म योग होता है ... कर्म योगी बहुत है ! निष्कामता नहीं ना ही किन्हीं मनस्वियों -अनुरागियों के चित् के अतिरिक्त कर्म लोलुपता का त्याग ! कर्म मार्ग सद्गति दे सकता है परन्तु भगवत् - प्रेम और भगवत् साक्ष्य सन्निधि नहीं !
केवल अन्त: करण की निर्मलता ... ईश्वरिय तीव्र अनुराग उन्माद उत्कंठा ... और भगवत् कृपा का निश्चित् समायोजन ही भगवत् प्रेम का घटक है ! सत्यजीत "तृषित"

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