सांसारिक सुख दाद -खुजली को खुजलाने जैसे हैँ। मैथुन सुख और अन्य इन्द्रिय सुख भी इसी कोटि के हैँ । जब तक खुजली खुजलाते रहेँगे तब तक शान्ति का आभास रहेगा किन्तु नाखून के विष से दाद बढ़ जायेगा और सताएगा भी अधिक । ये सभी सुख तुच्छ और दुःखदायी है ।
" यन्मैथुनादिगृहमेधिसुखं हि तत् तुच्छं कण्डूयनेन करयोरिव दुःखम् ।"
गीता जी मे भी कहा गया है -
" ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते । आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ।।"
इन्द्रियोँ तथा विषयोँ के संयोग से उत्पन्न होते हुए भोग निःसन्देह दुःख के कारणहैँ । वे आदि और अंतयुक्त अर्थात् अनित्य हैँ , अतः हे अर्जुन ! ज्ञानी मनुष्य इन सुखोँ मेँ कभी भटकते । वे ऐसे सुखो की इच्छा नही करते ।
जब इन्द्रियाँ ललचाने लगेँ उस समय मानव यदि मन को शान्त रखेँ और सावधान रहे तो वह सुखी हो सकता है ।
जीव तो ऐसा दुष्ट है कि वह साधारण आनन्द से भी पागल होजाता है और थोड़े से दुःख से रोने भी लग जाता है । संसार मेँ पाप है , ऐसी कल्पना कभीन करेँ । संसार के नहीँ , अपने मन मे छिपे पाप का उत्तर देना पड़ेगा । जगत के पाप दूर नही कर पायेँगे ।
"नैतन्मनस्तव कथासु विकुण्ठनाथ ,
सम्प्रीयते दुरितदुष्टमसाधुतीव्रम् ।
कामातुरं हर्षशोकभयैषणार्तं ,
तस्मिन्कथं तव गतिँ विमृशामि दीनः ।।
प्रह्लाद कहते है - मेरा मनअसाधु है । मेरा मन कामातुरहै । आपकी कथा मे, आपके नामस्मरण मेँ वह स्थिर नही हो पाता । कृपया आप ही मेरे मन को सुधारिये ।
अपकार का बदला उपकार से देना साधुता है । भगवत्सेवासे विमुख व्यक्ति को देखकर मुझे दुःख होता है । संसार के प्रायः सभी लोग जितना श्रम करके दुःख उठाते हैँ , उतना श्रम यदि भगवत् सेवा के लिए करेँ तो सुखी हो जायेँगे ।
Friday, 30 October 2015
रहस्य भाव 21
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