अंतःकरण चतुष्टय शुद्ध होने पर ही ईश्वर के दर्शन होते हैँ। अंतःकरण जब संकल्प विकल्प करता है तब वह मन कहा जाता है , जब किसी वस्तु का निर्णय करता है तबउसे बुद्धि कहते हैँ , श्रीकृष्ण का चिँतन करने परचित्त एवं जब उसमेँ क्रिया का अभिमान जाग्रत होता है तब उसे अहंकार कहते है । इन चारो को शुद्ध करना है । ब्रह्मचर्य के बिना इनकी शुद्धि नहीँ होती । ब्रह्मचर्य तभी सिद्ध होता है जब ब्रह्मनिष्ठा होगी।
सनत्कुमार ब्रह्मचर्य के अवतार हैँ , महाज्ञानी एवं बालक जैसे दैन्यभाव से रहतेहैँ । नारायण के दर्शनार्थ वैकुण्ठ जाते है । जहाँ बुद्धि कुण्ठित होती है वह वैकुण्ठ है , वहाँ काम और काल प्रवेश नही पा सकते । वहाँ सात बड़े बड़े दरवाजे हैँ ।
सनत्कुमार छः द्वार पर करकेसातवेँ द्वार पर पहुँचते हैजहाँ जय - विजय खड़े थे । उन्होँने उन्हेँ रोका जिसे सुनकर सनकादिक क्रोधित हो गये । क्रोध कामानुज अर्थातकाम का छोटा भाई है । अति सावधान रहने पर काम को माराजा सकता है किन्तु क्रोध कोनहीँ । काम का मूल संकल्प है । ज्ञानी किसी और के शरीर का चिँतन नहीँ करते अतः काम उन्हेँ पीड़ा नही देपाता। ज्ञानी का पतन काम द्वारा नहीँ क्रोध द्वारा होता है । छः द्वार पार करके ज्ञानी आगे बढ़ता है किन्तु सातवे द्वार पर जय विजय उसे रोकते हैँ।
योग के सात प्रकार - यम , नियम , आसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , ध्यान ,और धारणा ही बैकुण्ठ के सात द्वार हैँ । इन्हेँ पार करने पर ब्रह्म का साक्षात्कार होता है । जिसेसमाधि की अवस्था कहा जाता है ।
ध्यान का अर्थ है एक अंग का चिँतन । शरीर आँख को स्थिर रखना ही आसन है । धारणा का अर्थ है सर्वाँग का चिँतन ।धारणा मेँ अनेक सिद्धियाँ विघ्न डालती हैँ ।
जय विजय प्रतिष्ठा के दो स्वरुप हैँ । सर्वाँग के चिँतन मेँ सिद्धि प्रसिद्धि बाधक बनती है ।
जय अर्थात् स्वदेश मेँ कीर्ति और विजय अर्थात् परदेश मेँ प्रतिष्ठा ।
जो लौकिक प्रतिष्ठा मे फँसता है वह ईश्वर से दूर हो जाता है । बैकुण्ठ के सातवे द्वार पर जय विजय रोकते हैँ अर्थात् मनुष्य कीर्ति और प्रतिष्ठा का मोहनही पाता ।
काम एवं क्रोध अन्दर के विकार है बाहर से नहीँ आते बल्कि अवसर मिलने पर बाहर आजाते हैँ । मन पर सत्संग की भक्ति का अंकुश रखने पर , सतत ईश्वर का चिन्तन करने से अन्दर के विकार शान्त होजाते है ।
कर्म मार्ग मेँ विघ्नकर्त्ता काम है , काम से कर्म का नाश होता है ।
वल्लभाचर्य ने कहा है -
कामेन कर्मनाशः स्यात् , क्रोधेन ज्ञाननाशनम् ।
लोभेन भक्तिनाशः स्यात् , तस्मात् एतत त्रयं त्यजेत् ।।
भक्ति मार्ग मे लोभ बाधक है, लोभ से भक्ति का नाश होता है।
ज्ञान मार्ग मे क्रोध बाधक है क्रोध से ज्ञान नष्ट हो जाता है।
सनत्कुमारो को क्रोध आने सेज्ञान नष्ट हौ गया और जय विजय को शाप दे दिया !!
Thursday, 29 October 2015
रहस्य भाव 19
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