न जातु कामाः कामानामुपभोगेन शाम्यति ।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ।। (भाग. 9/19/14)
विषयोँ का उपभोग करते रहने से काम वासना कभी तृप्त या शान्त नहीँ होती , किन्तु जैसे अग्नि को घी की आहुति और भड़काती है , वैसे ही वासना की तृप्ति से उग्र होती जाती है । भोगोपभोग सेवासना अधिकाधिक बढ़ती है ।
मनुष्य का शरीर तो वृद्ध होता है किन्तु वासना , तृष्णा कभी वृद्ध नही होती ।
" जीर्यते या न जीर्यते ।"
भतृहरि ने भी कहा है - भोगो का नहीँ , बल्कि हमारा ही उपभोग हो जाता है । तृष्णा ऩहीँ , हम ही जीर्ण होते जाते हैँ ।
"भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः। तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः।।"
भागवत को गीता का भाष्य कह सकते है क्योँकि गीताजी के सिद्धान्तो के दृष्टान्त हमेँ भागवत मेँ मिलते हैँ ।
" काम महाशना महापाप्मा ।"
अग्नि की भाँति भोगो से कभीतृप्त न होने वाला महापापी है और वैरी है । काम शत्रु है फिर भी राजा की भाँति लोग उसे अपना मित्र बनाने का प्रयत्न करते हैँ । और अन्त मेँ दुःखी ही होते है ।
काम और क्रोध को कभी भी मित्र नही बनाना चाहिए । वेवैरी हैँ उनके साथ वैरी का सा ही व्यवहार करना चाहिए।
Monday, 19 October 2015
रहस्य भाव 1
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