सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता !
मनुष्य को उसका कर्म ही सुख दुःख देता है । सृष्टि का आधार ही कर्म है । इसलिए ज्ञानी महात्मा किसी को भी दोषी नहीँ मानते ।
सुख दुःख का कारण जो अपने अन्दर ही खोजे वह सन्त है । ज्ञानी पुरुष सुख दुःख का कारण बाहर नही खोजते हैँ । मनुष्य के दुख सुख का बाहर से कोई नाता नहीँ है । यह कल्पना करना कि कोई मुझे दुःख या सुख दे रहा है भ्रमात्मक है । ऐसी कल्पना तो दूसरोँ के प्रति वैर भाव जगायेगी ।
वस्तुतः सुख या दुःख कोई दे नहीँ दे सकता है यह मन की कल्पना मात्र है , सुख या दुःख तो कर्म के फल हैँ । सदा सर्वदा मन को समझाना चाहिए कि उसे जो भी सुख दुःखानुभव हो रहा है , वह उसी के कर्मो का फल है --
"कोउ न काहु सुख दुःख कर दाता ।
निज कृत करम भोगु सब भ्राता ।।"
जय श्री हरि .....,
Tuesday, 20 October 2015
रहस्य भाव 5
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