गुणानुरक्तं व्यसनाय जन्तोः क्षेमाय नैर्गुण्यमथो मनः स्यात्।
(भा.5/11/8)
विषयासक्त मन जीव को सांसारिक संकट मेँ फँसाता है और वही मन विषय रहित होने पर जीव को शान्तिमय मोक्षपद की प्राप्ति कराता है ।
जीव के सांसारिक बन्धन का कारण मन ही है । मनुष्य का मन विषयासक्त होने पर सांसारिक दुःखदाता बन जाता है किन्तु विषयासक्त होने के बदले ईश्वर भजन मेँ आसक्त हो जाय तो मोक्षदाता भी बन जाता है ।
विषयोँ का चिँतन करता हुआ मन जब विषयोँ मेँ फँसता है तो उसका बन्धन आत्मा अपने मे मान लेती है स्वयं पर आरोपित कर लेती है । यह सब मन की दुष्टता है । अतः मन को परमात्मा मेँ स्थिर करना होगा ।
जिस दिन जीभ असत्य बोले उस दिन उपवास करना होगा। जिस दिन कुछ पाप हो जाय उस दिन प्रायश्चित स्वरुप ईश्वर की भजन अधिक करना होगा ।
(स्वान्तः सुखाय लेख है यदि इससे किसी को किसी प्रकार का कष्ट पहुँचे तो क्षमा प्रार्थी हूँ )
0 जय श्री हरि .....,
Tuesday, 20 October 2015
रहस्य भाव 4
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