ध्यान -
स्वयं मे प्रवेश ही धर्म है, जीवन का परम उद्देश्य है,
समय की वास्तविक सार्थकता है।
स्वयं मे प्रवेश स्वयं से ही होता है वहाँ कोई भी
विचार अवरोध उत्पन्न कर देगा ।
अभी तुम विचारों मे घिरे हो उन्हें कमतर करते हुए एक
विचार मे आओ और फिर उससे भी उपराम हो जाओ,
यही ध्यान है।
यदि तुम विचारों से उपराम नहीं हो पाते तो कारण
मात्र इतना ही है कि तुमने अपने अहम की जड़ता को
नही जाना है, तुमने अपने सुखों का आधार संसार मे
माना है, पदार्थ मे माना है जो कि भ्रम है,
विनाशशील है, प्रतिक्षण मृत्यु को प्राप्त हो रहा है
।
विचारों के इस संसार मे विश्राम कभी नही मिलेगा
अपितु भटकाव मिलेगा, अहम का फैलाव मिलेगा।
गौर करना कि तुम्हारे कृत्य तुम्हें अपने अंतस की ओर
भी ले जाते हैं अथवा संसार से मान पाने की चेष्टा मे
ही लगे रहते हैं ।
अहम का फैलाव आत्मा की हीनता है ।
तुम जब तक बाहरी दुनिया को अपने अंतस की
यात्रा का आधार बनाते हो तब तक भटकते ही रहते
हो। ऐसे जाने कितनी बार तुमने अपना जीवन व्यर्थ
सिद्ध कर दिया।
Thursday, 29 October 2015
रहस्य भाव 20
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