Saturday, 31 October 2015

संसार कारागृह है

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं....
एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः ।
कुरु कर्मैव तस्मात्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्‌ ॥ 15

हे अर्जुन! पूर्व समय में बन्धन से मुक्त होने की इच्छा वाले मनुष्यों ने मेरे दिव्य-ज्ञान को समझकर कर्तव्य-कर्म के द्वारा ही मोक्ष की प्राप्ति की है, इसलिए तू भी उन्ही का अनुसरण करके अपने कर्तव्य का पालन कर।

हम सभी भगवान के अपराधी हैं हम सभी सजा भोगने के लिये संसार में आये हैं, सजा से मुक्त होना ही हमारे जीवन का एक मात्र उद्देश्य है।

जिस प्रकार कोई व्यक्ति राष्ट्र के नियमों का उलंघन करके अपराध करता है तो उसे सजा भोगने के लिये कारागार में डाल दिया जाता है, कारागार में व्यक्ति को अपराध के अनुसार निम्न प्रकार से उच्च प्रकार की कोठरी रहने को दी जाती है।

यदि कोई व्यक्ति कारागार में ही जन्म लेता है और कारागार में ही अपना जीवन व्यतीत करता है, जिसने कारागार से बाहर का जीवन कभी देखा ही नहीं है तो वह व्यक्ति कारागार के जीवन को ही अपना वास्तविक जीवन समझता रहता है।

जब तक व्यक्ति को कारागार का जीवन ही अच्छा लगता है तब तक व्यक्ति कारागार से छूटने का प्रयत्न कभी नहीं करता है, और जब कभी किसी अधिकारी की कृपा से उस व्यक्ति को कारागार से बाहर के जीवन दिखलाया जाता है तभी वह व्यक्ति कारागार से छूटने पर विचार करता है।

तब वह व्यक्ति कारागार के नियमों को जानकर उन नियमों का पालन करने लगता है तो उस व्यक्ति को निम्न कोठरी से उच्च कोठरी दे दी जाती है, इस प्रकार क्रमशः कारागार के नियमों का पालन करते हुए एक दिन उस व्यक्ति को उच्च कोठरी से सर्वोच्च कोठरी प्राप्त हो जाती है।

जब व्यक्ति उस सर्वोच्च कोठरी में रहकर सभी कैदियों के साथ प्रेम पूर्वक आचरण करता हुआ कारागार के नियमों का पालन ईमानदारी से करने लगता है तो वह व्यक्ति एक दिन कारागार से शीघ्र मुक्त हो जाता है।

उसी प्रकार हम सभी भगवान के परम-धाम (राष्ट्र) के निवासी हैं, यह संसार उस परम-धाम का एक कारागार है, और इस संसार में चौरासी लाख प्रकार की योनि (शरीर रूपी कोठरी) है, इन सभी योनियों में मनुष्य रूपी सर्वोच्च योनि है।

जब हम सभी ने भगवान के परम-धाम के नियमों का उलंघन करके अपराध किया था तो हमें सजा भोगने के लिये हमारी स्मृति को छीनकर संसार रूपी कारागार में डाल दिया गया था।

अब हम सभी निम्न प्रकार के विभिन्न शरीरों में सजा भोग कर मनुष्य रूपी सर्वोच्च शरीर को प्राप्त कर चुकें हैं, यदि अब हम संसार रूपी प्रकृति के नियमों का पालन ईमानदारी से करेंगे तो हम सजा से शीघ्र मुक्त हो सकते हैं।

प्रकृति के नियम वेद-शास्त्रों में विस्तृत रूप से और "श्रीमद भगवद गीता" में सार रूप से प्रस्तुत हैं, जिसे पढ़कर या अधिकारिक गुरु के द्वारा भी जाना जा सकता है, प्रकृति के नियम प्रत्येक व्यक्ति के लिये अपनी अवस्था के अनुसार भिन्न-भिन्न होते है।

जो व्यक्ति अपनी अवस्था के अनुसार नियमों को जानकर सभी प्राणीयों के साथ प्रेम पूर्वक आचरण करता हुआ इन नियमों का पालन ईमानदारी से निरन्तर करता है तो वह व्यक्ति इस संसार रूपी कारागार से शीघ्र मुक्त हो जाता है।
हम सभी ने संसारिक जीवन को ही अपना वास्तविक जीवन समझ लिया है, प्रभु कृपा से किसी व्यक्ति को गुरु के माध्यम से जब सांसारिक जीवन से बाहर के जीवन का अनुभव हो जाता है तभी वह व्यक्ति इस संसार से छूटने का प्रयत्न करने लगता हैं।

इसलिये हम सभी को अपनी अवस्था के अनुसार प्रकृति के नियमों का पालन ईमानदारी से करने का प्रयत्न करना चाहिये, जिससे हम सभी से अब ऎसे अपराध न हो जाये कि हमें फिर से निम्न शरीर में जाना पड़े। सत्यजीत तृषित

ज्ञानी और अज्ञानी में भेद

ज्ञानी अज्ञानी में भेद

भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं....
त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः॥20

जो मनुष्य अपने सभी कर्म-फलों की आसक्ति का त्याग करके सदैव सन्तुष्ट तथा स्वतन्त्र रहकर सभी कार्यों में पूर्ण व्यस्त होते हुए भी वह मनुष्य निश्चित रूप से कुछ भी नहीं करता है।
कार्य हमेशा तीन प्रकार से मन, वाणी और शरीर के द्वारा ही किये जाते है, किसी भी कार्य को करते समय "कब हम अज्ञानी होते हैं और कब ज्ञानी होते हैं।"   

१. जब हम स्वयं के सुख की कामना करते हैं तब हम अज्ञानी होते हैं, और जब हम दूसरों के सुख की कामना करते हैं तब हम ज्ञानी होते हैं।

२. जब हम दूसरों को जानने का प्रयत्न करते हैं तब हम अज्ञानी होते हैं, और जब हम स्वयं को जानने का प्रयत्न करते हैं तब हम ज्ञानी होते हैं।

३. जब हम स्वयं को कर्ता मानकर कार्य करते हैं तब हम अज्ञानी होते हैं, और जब हम भगवान को कर्ता मानकर कार्य करते हैं तब हम ज्ञानी होते हैं।

४. जब हम दूसरो को समझाने का प्रयत्न करते हैं तब हम अज्ञानी होते हैं, और जब हम स्वयं को समझाने का प्रयत्न करते हैं तब हम ज्ञानी होते हैं।

५. जब हम दूसरों के कार्यों को देखने का प्रयत्न करते हैं तब हम अज्ञानी होते हैं, और जब हम स्वयं के कार्यों को देखने का प्रयत्न करते हैं तब हम ज्ञानी होते हैं।

६. जब हम दूसरों को समझाने के भाव से कुछ भी कहते या लिखते हैं तब हम अज्ञानी होते हैं, और जब हम स्वयं के समझने के भाव से कहते या लिखते हैं तब हम ज्ञानी होते हैं।

७. जब हम संसार की सभी वस्तुओं को अपनी समझकर स्वयं के लिये उपभोग करते हैं तब हम अज्ञानी होते हैं, और जब हम संसार की सभी वस्तुओं को भगवान की समझकर भगवान के लिये उपयोग करते हैं तब हम ज्ञानी होते हैं।
ज्ञानी अवस्था में किये गये सभी कार्य भगवान की भक्ति कार्य ही होते हैं। सत्यजीत तृषित

रहस्य भाव 26

आत्मा असीम आनन्द का भण्डारहै , परन्तु मनुष्य अज्ञान के कारण अपने स्वरुप को भूलजाता है । वह बाह्य वस्तुऔ मेँ आनन्द खोजता है। जहाँ उसे आनन्द के बदले हर जगह रोना , चिन्ता , और दुःख ही मिलता है । भौतिक जगत की वस्तुओ मेँ सुख खोजना ही अज्ञान है । ये वस्तुएँ क्षणभंगुर हैँ . इनसे प्राप्त होने वाला सुख भी क्षणिक है । यदि ये वस्तुएँमिल भी जाती हैँ तो क्षणभर के बाद ही लगता है कि किसी अन्य वस्तु मेँ आनन्द है । वास्तव मेँ इन भौतिक वस्तुओमेँ सुख या आनन्द कहीँ नहीँ, आनन्द तो अपने अन्दर ही हैजिसे हम अज्ञान के कारण देखनहीँ पाते हैँ । हम इन बाहरी भौतिक वस्तुओ मेँ आनन्द मेँ खोजते है परन्तु इनमेँ दुःख और शोक के अतिरिक्त कुछ भी नहीँ मिलता

रहस्य भाव 25

श्रीकृष्ण की आठ पटरानियो से उत्पन्न पुत्रोँ के नाम -->
1. रुक्मिणी से - - प्रद्युम्न , चारुदेष्ण , सुदेष्ण ,चारुदेह , सुचारु , चारुगुप्त , भद्रचारु , चारुचन्द्र , विचारु , चारु ।
2.  सत्यभामा से - -  भानु , सुभानु , स्वरभानु , प्रभानु , भानुमान , चन्द्रभानु , बृहद्भानु , अतिभानु , श्रीभानु , प्रतिभानु ।
3. जाम्बवती से - - साम्ब , सुमित्र , पुरुजित , शतजित , सहस्रजित , विजय, चित्रकेतु ,  वसुमान ,  द्रविण , क्रतु ।
4. सत्या से - -  वीर , चन्द्र , अश्वसेन , चित्रगु , वेगवान , वृष , आम , शंकु , वसु , कुन्ति ।
5. कालिन्दी से -- श्रुत , कवि , वृष , वीर , सुबाहु , भद्र , शान्ति ,दर्श , पूर्णमास , सोमक

6. लक्ष्मणा से - -  प्रघोष , गात्रवान , सिँह , बल , प्रबल, ऊर्ध्वग , महाशक्ति , सह , औज , अपराजित ।
7. मित्रविन्दा से -- वृक , हर्ष ,  अनिल , गृध्र , वर्धन , अन्नाद , महांस , पावन , वह्नि , क्षुधि ।
8. भद्रा से - - संग्रामजित , बृहत्सेन ,शूर . प्रहरण , अरिजित , जय . सुभद्र , वाम , आयु , सत्यक ।

रहस्य भाव 24

गृहास्थाश्रम एक गाडी है
और पति पत्नी उसके
पहिए है । इस गाडी पर
श्रीकृष्ण को पधराना है ।
जीवनरथ के सारथी है
श्रीकृष्ण । इस जीवनरथ के
अश्व हैँ
हमारी इन्द्रियाँ ।
.... हम प्रभु से
प्रार्थना करेँ ,.. नाथ मैँ
आपकी शरण मेँ आया हूँ ।
जिस प्रकार आपने अर्जुन
के रथ का संचालन
किया था , उसी प्रकार
आप मेरे जीवनरथ के
सारथी बनेँ और सन्मार्ग
पर लेँ चलेँ । जिसके
शरीर रथ का संचालन प्रभु
के हाथोँ मेँ नही हैँ ,
उसका संचालन मन
करता है और मन एक
ऐसा सारथी है
जो जीवनरथ को पतन के
गर्त मेँ गिरा देता है ...
... यदि हम सब
की गाडी परमात्मा के
हाथ मेँ नही होगी
तो इन्द्रिय रुपी अश्व
उसे पतन के गडढे मे
गिरा देँगे ।
अर्जुन की जीत इसीलिए
हुई कि उन्होँने
परमात्मा को सारथी पद
दिया था मन को नहीँ !!!

Friday, 30 October 2015

रहस्य भाव 23

जैसे ही श्रीकृष्ण के लीलामृत की एक बूँद भी कान मेँ पड़ती है वैसे ही तत्काल राग और द्वेष के द्वन्द्व स्तर से ऊपर उठ जाता है । इसका परिणाम यह होता है कि व्यक्ति भौतिक आसक्ति के संदूषण से पूर्णरुपेण मुक्त हो जाता है और इस जगत , परिवार , गृह , पत्नी . सन्तान ,आदि उन सभी वस्तुओँ का मोह त्याग देता है , जो भौतिक रुप से सभी मानव को प्रिय होती है । भौतिक उपलब्धियोँ से रहित होकर वह अपने सम्बन्धियोँ को भी दुःखी करता है  और स्वयं भी दुःखी होता है । फिर वह मानव रुप मेँ अथवा अन्य किसी भी योनि मेँ , चाहे वह पक्षी योनि ही हो , साधु बनकर श्रीकृष्ण की खोज मेँ भटकता रहता है । श्रीकृष्ण को उनके नाम , उनके गुण , उनके रुप , उनकी लीलाओ , उनकी साज सामग्री और उनके संगी साथियोँ को तथ्य रुप से समझना अत्यन्त कठिन है ।।

रहस्य भाव 22

कफ, वात तथा पित्त
नामक तीन तत्वो से
व्याप्त भौतिक शरीर
को निज आत्मा के रुप मेँ
स्वीकार करने
वाला मानव एक पशु
मात्र है ।
जो व्यक्ति अपने परिवार
तथा परिजनोँ को अपना मानता है ,तथा भौतिक
वस्तुओ को अपना उपास्य
मानता है ।वह पशु के
अतिरिक्त और कुछ नहीँ है
।जो व्यक्ति केवल
वहाँ स्नान करने हेतु
पवित्र
तीर्थो की यात्रा करता है ,
किन्तु ऋषियो ,
मुनियो तथा महात्माओ
की संगति कभी नहीँ करता ,
वह मानव
शरीरधारी होते हुए
भी गधे के समान एक पशु के
अतिरिक्त और कुछ नही है
।।

रहस्य भाव 21

सांसारिक सुख दाद -खुजली को खुजलाने जैसे हैँ। मैथुन सुख और अन्य इन्द्रिय सुख भी इसी कोटि के हैँ । जब तक खुजली खुजलाते रहेँगे तब तक शान्ति का आभास रहेगा किन्तु नाखून के विष से दाद बढ़ जायेगा और सताएगा भी अधिक । ये सभी सुख तुच्छ और दुःखदायी है ।
" यन्मैथुनादिगृहमेधिसुखं हि तत् तुच्छं कण्डूयनेन करयोरिव दुःखम् ।"
गीता जी मे भी कहा गया है -
" ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते । आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ।।"
इन्द्रियोँ तथा विषयोँ के संयोग से उत्पन्न होते हुए भोग निःसन्देह दुःख के कारणहैँ । वे आदि और अंतयुक्त अर्थात् अनित्य हैँ , अतः हे अर्जुन ! ज्ञानी मनुष्य इन सुखोँ मेँ कभी भटकते । वे ऐसे सुखो की इच्छा नही करते ।
जब इन्द्रियाँ ललचाने लगेँ उस समय मानव यदि मन को शान्त रखेँ और सावधान रहे तो वह सुखी हो सकता है ।
जीव तो ऐसा दुष्ट है कि वह साधारण आनन्द से भी पागल होजाता है और थोड़े से दुःख से रोने भी लग जाता है । संसार मेँ पाप है , ऐसी कल्पना कभीन करेँ । संसार के नहीँ , अपने मन मे छिपे पाप का उत्तर देना पड़ेगा । जगत के पाप दूर नही कर पायेँगे ।
"नैतन्मनस्तव कथासु विकुण्ठनाथ ,
सम्प्रीयते दुरितदुष्टमसाधुतीव्रम् ।
कामातुरं हर्षशोकभयैषणार्तं ,
तस्मिन्कथं तव गतिँ विमृशामि दीनः ।।
प्रह्लाद कहते है - मेरा मनअसाधु है । मेरा मन कामातुरहै । आपकी कथा मे, आपके नामस्मरण मेँ वह स्थिर नही हो पाता । कृपया आप ही मेरे मन को सुधारिये ।
अपकार का बदला उपकार से देना साधुता है । भगवत्सेवासे विमुख व्यक्ति को देखकर मुझे दुःख होता है । संसार के प्रायः सभी लोग जितना श्रम करके दुःख उठाते हैँ , उतना श्रम यदि भगवत् सेवा के लिए करेँ तो सुखी हो जायेँगे ।

Thursday, 29 October 2015

संतो कहा गृहस्थ कहा त्यागी।

संतो कहा गृहस्थ कहा त्यागी।
जेहि देखूँ तेहि बाहर-भीतर, घट-घट माया लागी॥
माटीकी भीत, पवनका थंभा, गुन औगुनसे छाया;
पाँच तत्त आकार मिलाकर, सहजैं गिरह बनाया॥
मन भयो पिता, मनसा भई माई, दुख-दुख दोनों भाई;
आसा-तृस्ना बहनें मिलकर, गृहकी सौंज बनाई॥
मोह भयो पुरुष, कुबुद्धि भई घरनी, पाँचों लड़का जाया;
प्रकृति अनंत कुटुम्बी मिलकर कलहल बहुत मचाया॥
लड़कोंके सँग लड़की जाई, ताका नाम अधीरी;
बनमें बैठी घर-घर डोलै, स्वारथ-संग खपी री॥
पाप-पुण्य दोउ पाद-पड़ोसी, अनँत बासना नाती;
राग-द्वेषका बंधन लागा, गिरह बना उतपाती॥
कोइ गृह माँड़ि गिरहमें बैठा, बैरागि बन बासा;
जन 'दरिया' इक राम भजन बिन घट-घटमें घर बासा॥

भगवान का बनकर भगवान के लिए भगवान का भजन

भगवान का बनकर  ,  भगवान के लिये , भगवान का भजन ...

सरल सी बात , लगता है हम सब यें ही करते है | परन्तु ऐसा हो जाये तो प्रभु जी की कृपा |
भगवान का बनकर ... अर्थात् सम्बन्ध हो ! प्रेम हो ! मैं आपका ही हूँ इस तथ्य को हृदय ग्रहण लें ! न कि संसार का हो कर ! यें बात निवृति भी कहती है और अनुराग भी ! तीव्र अनुराग में संसार को छोडना भी नहीं होता ... छुट जाता है ! यदा कदा स्मृति होती है ओह ! संसार में हूँ ! भगवत् चरणों में ऐसी अनन्य प्रीति हो जाये कि चरण स्मृति चेतन पर अटल हो जाये ! अपना लोक-परिवेश सब वहीं हो जायें ! ख़ुद से छुट कर ही किसी का हुआ जाता है ! प्रेम का रस भी जब ही है जब निज स्मृति न हो ! बस खुमारी रहे सदा ! एक बार प्रेम रोगी हुये कि बस सब सरल हो जाना ही है ! पिया मिलन की आस सच्ची हो ! पहले संसार को छोडने के प्रयास में संसार छुट नहीं पाता ! पहले प्रेम हो जाये ! सम्बन्ध हो जाये ! प्यास जग उठे मिलन की तब पीर भरी पुकार उठती है ! और स्वत: पग पग निवृति होती है जैसे - जैसे पिया मिलन को पग बढते है !
भजन भगवान का हुये बिना हुआ तो केवल कामनाओं तक अटक जायेगा ! फल मिला की भगवान की आवश्यकता हटी ! जगत् में भगवान का होने की धारणा है पर भीतर से सम्बन्ध नहीं ! तीव्र प्रेम की मधुर पुकार नहीं ! केवल कामनावश सम्बन्ध है ! भगवान का होना अर्थात् ख़ुद का न होना ! अहंकार गया ! परन्तु यहाँ हम कहाँ "मै" मुक्त है ! कई बार देखा शिव मन्दिर में किसी ने बहुत भाव से प्रेम से भव्य श्रृंगार किया और कुछ ही देर में दूसरे ने अपनी पूजन हेतु श्रृंगार हटा दिया ! यहाँ भगवान् से प्रेम हो तो अपने अर्चन हेतु सुन्दर स्वरूप न हटाया जावें ! यहाँ केवल कामना और अहंकार है ! सुन्दर पुष्प खुद की खरीद के नहीं तो हटा दिये जब्कि सजा कौन है ? यें ना दिखा वरन् सुन्दर रूप देख द्रवित हो मानस या पंचोपचार आदि पूजन कर ली जायें और सुन्दर दर्शन से तृप्त हो जाया जाये ! परन्तु यहाँ प्रेम-अखियाँ कहाँ ? सो लगता है कि प्रेम है परन्तु है नहीं ... केवल अपने अर्चन-साधन आदि का अभिमान है ! अपने से बन पडी भगवत्सेवा का भी अभिमान ! कई बार देखा कि कोई पुष्प लाया ... प्रसाद लाया तो वहाँ ध्यान अपनी वस्तु पर ही अटक जाता है कि कहाँ चढी ? भगवत् दर्शन न हो कर केवल अपने पुष्प - माला - द्रव्य-श्रृंगार पर ही नजरें होती है कारण ...मेरा है ! यें भाव ! जबकि प्रेम होने पर प्रत्येक सेवा साधन साक्षात् कृपा ही समझ बनते है । भगवान का बनना हुआ अहम् की निवृति , समर्पण , शरणागति । परन्तु अहम् सहज नही संग छोड़ता । मेरा संसार कहो या मेरी सेवा । मेरा भजन । मेरा भाव । मेरी साधना । मेरी सिद्धि आदि में वही अहंकार ही तो है ।
भगवान का होना है यानि जैसा चाहे वहीँ । अपनी बुद्धि , अपने विचारों से उठ जैसा चाहे वैसा । एक बार किसी ने कहा .. सब ही कहते है कि भगवान की ईच्छा । भगवान की ईच्छा तो जब होगी जब हमारी न हो । हमारी ईच्छा कामना को ही भगवत् ईच्छा कह लेते है । भगवान की ईच्छा  संकीर्ण नहीँ होती ।

भगवान के लिए ... ये भी लगता है कि सब ही तो भगवान के लिए भजन करते है पर ऐसा सब नही करते बस सच्चे प्रेमी और सच्चे साधक ।
हम भजन या तो कामना वष करते है । कामना कई बार भीतर लघुता में होती है । या भजन संसार के लिए करते है । संकल्प रहित या भगवान के लिए ऐसा संकल्प कहा कोई करता है । सारा जीवन का चिट्ठा एक दिन की पूजा के संकल्प में कह कर भगवत् प्राप्त जीवन में मन माने बदलाव की अपील होती है । जो कि अप्रत्यक्ष भगवान के विधान का अपमान ही है । उनकी अवमानना ।
भजन होता है संसार ,कामना ,या खुद के लिए । भगवान के लिए भजन कौन करता है । भीष्म पितामह बाणो की शैय्या पर भजन किये । हमे भजन के लिए अनुकूल माहौल अर्थात संसार ही बसाना होता है । भुक्ति मुक्ति की कामना होती ही है । भुक्ति अर्थात् इस लोक में ऐश्वर्य सुख आदि। मुक्ति अर्थात् पारलौकिक सुख । यहाँ भगवान के लिए किसने भजन किया ?
इसके लिए निष्काम भजन हो संकल्प रहित या भगवत्तार्थ का मानस हो ।
भजन जप आदि के बाद कहा जाता है अनेन जप कर्मणा नारायण अर्पनम् अस्तु । परन्तु कहा जाता है देता कोई नही । किसी के चित् में नही आता की भजन दिया जा चूका है अब अधिकार में नही । हम सब कहते है उस दिन मेरा भजन इतना अच्छा और ऐसा हुआ जो दे दिया तो वो मेरा विस्मृत होना चाहिए । विनियोग का जल छोड़ना सरल है भजन नहीँ दिया जाता । सिद्ध वही होते है जो भजन भगवान के लिए नही करते । निज सिद्धि आदि की कामना में करते है ।
अतः निष्काम प्रेमानन्द भजन भाव केवल प्रेम में हो सकता है या सच्चे साधक में । भगवान के लिए का अर्थ हुआ प्रेममय - भावमय अनुरागित निष्काम भजन ।

भगवान का ... जी , भगवान का होकर भगवान के लिए जो भजन हो वो भगवान का ही हो । अन्यत्र नए-नए तरीके आदि न हो । भगवत् नाम ही कल्याणकारी है । भगवान ही प्रेम मय ,प्रेम स्वरूप है उनसे ही नित्य सम्बन्ध हो सकता है ।
भगवान का भजन भी नही होता । भजन अपने भावपक्ष , सिद्धान्त आदि में बन्ध जाता है कि या तो भगवान का होता नही , हो तो भगवान का भजन के समय भीतरी अनुराग न होने से ... भावना न होने से उसी दिशा में होता है जो विचार भीतर चल रहा है । भगवान का ही भजन हों । अन्यत्र भावना न कर भगवतभावना केवल भगवान ही भजन में  भीतर रहे ऐसी असीम कृपा की अरदास हो ।
तीनो बाते गम्भीरता जी की है । भगवान का होकर , भगवान के लिए ,भगवान का भजन के गूढ़ में सारी अन्तः करण शुद्धि और विकार निवृति है ।। सच्ची प्रेममयी साधना है । और ये ही भाव भगवत् कृपा है । विनती करें कि ऐसा भजन नित्य हुआ जा सके । और भजन कर इसके सार में सब अतिरिक्त साधन आदि की रसहीनता प्रतीत हो --- सत्यजीत तृषित ।।।

रहस्य भाव 19

अंतःकरण चतुष्टय शुद्ध होने पर ही ईश्वर के दर्शन होते हैँ। अंतःकरण जब संकल्प विकल्प करता है तब वह मन कहा जाता है , जब किसी वस्तु का निर्णय करता है तबउसे बुद्धि कहते हैँ , श्रीकृष्ण का चिँतन करने परचित्त एवं जब उसमेँ क्रिया का अभिमान जाग्रत होता है तब उसे अहंकार कहते है । इन चारो को शुद्ध करना है । ब्रह्मचर्य के बिना इनकी शुद्धि नहीँ होती । ब्रह्मचर्य तभी सिद्ध होता है जब ब्रह्मनिष्ठा होगी।
सनत्कुमार ब्रह्मचर्य के अवतार हैँ , महाज्ञानी एवं बालक जैसे दैन्यभाव से रहतेहैँ । नारायण के दर्शनार्थ वैकुण्ठ जाते है । जहाँ बुद्धि कुण्ठित होती है वह वैकुण्ठ है , वहाँ काम और काल प्रवेश नही पा सकते । वहाँ सात बड़े बड़े दरवाजे हैँ ।
सनत्कुमार छः द्वार पर करकेसातवेँ द्वार पर पहुँचते हैजहाँ जय - विजय खड़े थे । उन्होँने उन्हेँ रोका जिसे सुनकर सनकादिक क्रोधित हो गये । क्रोध कामानुज अर्थातकाम का छोटा भाई है । अति सावधान रहने पर काम को माराजा सकता है किन्तु क्रोध कोनहीँ । काम का मूल संकल्प है । ज्ञानी किसी और के शरीर का चिँतन नहीँ करते अतः काम उन्हेँ पीड़ा नही देपाता। ज्ञानी का पतन काम द्वारा नहीँ क्रोध द्वारा होता है । छः द्वार पार करके ज्ञानी आगे बढ़ता है किन्तु सातवे द्वार पर जय विजय उसे रोकते हैँ।
योग के सात प्रकार - यम , नियम , आसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , ध्यान ,और धारणा ही बैकुण्ठ के सात द्वार हैँ । इन्हेँ पार करने पर ब्रह्म का साक्षात्कार होता है । जिसेसमाधि की अवस्था कहा जाता है ।
ध्यान का अर्थ है एक अंग का चिँतन । शरीर आँख को स्थिर रखना ही आसन है । धारणा का अर्थ है सर्वाँग का चिँतन ।धारणा मेँ अनेक सिद्धियाँ विघ्न डालती हैँ ।
जय विजय प्रतिष्ठा के दो स्वरुप हैँ । सर्वाँग के चिँतन मेँ सिद्धि प्रसिद्धि बाधक बनती है ।
जय अर्थात् स्वदेश मेँ कीर्ति और विजय अर्थात् परदेश मेँ प्रतिष्ठा ।
जो लौकिक प्रतिष्ठा मे फँसता है वह ईश्वर से दूर हो जाता है । बैकुण्ठ के सातवे द्वार पर जय विजय रोकते हैँ अर्थात् मनुष्य कीर्ति और प्रतिष्ठा का मोहनही पाता ।
काम एवं क्रोध अन्दर के विकार है बाहर से नहीँ आते बल्कि अवसर मिलने पर बाहर आजाते हैँ । मन पर सत्संग की भक्ति का अंकुश रखने पर , सतत ईश्वर का चिन्तन करने से अन्दर के विकार शान्त होजाते है ।
कर्म मार्ग मेँ विघ्नकर्त्ता काम है , काम से कर्म का नाश होता है ।
वल्लभाचर्य ने कहा है -
कामेन कर्मनाशः स्यात् , क्रोधेन ज्ञाननाशनम् ।
लोभेन भक्तिनाशः स्यात् , तस्मात् एतत त्रयं त्यजेत् ।।
भक्ति मार्ग मे लोभ बाधक है, लोभ से भक्ति का नाश होता है।
ज्ञान मार्ग मे क्रोध बाधक है क्रोध से ज्ञान नष्ट हो जाता है।
सनत्कुमारो को क्रोध आने सेज्ञान नष्ट हौ गया और जय विजय को शाप दे दिया !!

रहस्य भाव 20

ध्यान -
स्वयं मे प्रवेश ही धर्म है, जीवन का परम उद्देश्य है,
समय की वास्तविक सार्थकता है।
स्वयं मे प्रवेश स्वयं से ही होता है वहाँ कोई भी
विचार अवरोध उत्पन्न कर देगा ।
अभी तुम विचारों मे घिरे हो उन्हें कमतर करते हुए एक
विचार मे आओ और फिर उससे भी उपराम हो जाओ,
यही ध्यान है।
यदि तुम विचारों से उपराम नहीं हो पाते तो कारण
मात्र इतना ही है कि तुमने अपने अहम की जड़ता को
नही जाना है, तुमने अपने सुखों का आधार संसार मे
माना है, पदार्थ मे माना है जो कि भ्रम है,
विनाशशील है, प्रतिक्षण मृत्यु को प्राप्त हो रहा है

विचारों के इस संसार मे विश्राम कभी नही मिलेगा
अपितु भटकाव मिलेगा, अहम का फैलाव मिलेगा।
गौर करना कि तुम्हारे कृत्य तुम्हें अपने अंतस की ओर
भी ले जाते हैं अथवा संसार से मान पाने की चेष्टा मे
ही लगे रहते हैं ।
अहम का फैलाव आत्मा की हीनता है ।
तुम जब तक बाहरी दुनिया को अपने अंतस की
यात्रा का आधार बनाते हो तब तक भटकते ही रहते
हो। ऐसे जाने कितनी बार तुमने अपना जीवन व्यर्थ
सिद्ध कर दिया।