स्वामी श्री शरणानन्द जी महाराज
शरणागति तत्त्व --1⃣
'शरण' सफलता की कुन्जी है, निर्बल का बल है, साधक का जीवन है, प्रेमी का अन्तिम प्रयोग है, भक्त का महामन्त्र है, आस्तिक का अचूक अस्त्र है, दुःखी की दवा है, पतित की पुकार है । वह निर्बल को बल, साधक को सिद्धि, प्रेमी को प्रेमपात्र, भक्त को भगवान्, आस्तिक को अस्ति, दुःखी को आनन्द, पतित को पवित्रता, भोगी को योग, परतन्त्र को स्वातन्त्र्य, बद्ध को मुक्ति, नीरस को सरसता और मर्त्य को अमरता प्रदान करती है ।
प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी के शरणापन्न रहता है, अन्तर केवल इतना है कि आस्तिक एक के और नास्तिक अनेक के । आस्तिक आवश्यकता की पूर्ति करता है और नास्तिक इच्छाओं की । आवश्यकता एक और इच्छाएँ अनेक होती हैं। आवश्यकता की पूर्ति होने पर पुन: उत्पत्ति नहीं होती, इच्छाओं की पूर्ति होने पर पुन: उत्पत्ति होती है । इच्छाकर्ता बेचारा तो प्रवृत्ति द्वारा केवल शक्तिहीनता ही प्राप्त करता है । अत: 'शरणागत' शरण्य की शरण हो, इच्छाओं की निवृत्ति एवं आवश्यकता की पूर्ति कर कृतकृत्य हो जाता है ।
आवश्यकता उसी की होती है, जिसकी सत्ता है और इच्छा का जन्म प्रमादवश आसक्ति से होता है, इसी कारण उसकी निवृत्ति होती है, पूर्ति नहीं होती । साधारण प्राणी इच्छा और आवश्यकता में भेद नहीं जानते । परन्तु विचारशील जब अपने जीवन का अध्ययन करता है, तब उसे इच्छा और आवश्यकता में भेद स्पष्ट प्रत्यक्ष हो जाता है । यदि आवश्यकता और इच्छा में भेद न होता, तो आस्तिकता उत्पन्न नहीं होती, क्योंकि इच्छायुक्त प्राणी विषय-सत्ता से भिन्न कुछ नहीं जानता ।
क्रमशः-
----- 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से,
शरणागत होते ही, सबसे प्रथम अहंता परिवर्तित होती है । 'शरणागति' भाव है, कर्म नहीं । भाव और कर्म में यही भेद है कि भाव वर्तमान में ही फल देता है और कर्म भविष्य में । भावकर्ता ‘भाव’ स्वतन्त्रतापूर्वक कर सकता है, किन्तु कर्म संगठन से होता है । संगठन अनेक प्रकार के होते हैं, क्योंकि अनेक निर्बलताओं का समूह ही वास्तव में 'संगठन' है । परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से, अपने से भिन्न की सहायता की खोज करना 'संगठन' है ।
शरणागति दो- प्रकार की होती है- भेदभाव की तथा अभेदभाव की । भेदभाव की शरणागति शरण्य अर्थात् प्रेमपात्र की स्वीकृति मात्र से ही हो सकती है, किन्तु अभेद-भाव की शरणागति शरण्य के यथार्थ-ज्ञान से होती है । अभेद-भाव का शरणागत, शरणागत होने से पूर्व ही निर्विषय हो जाता है, केवल लेशमात्र अहंता शेष रहती है, जो शरण्य की कृपा से निवृत्त हो जाती है । भेदभाव का शरणागत, शरणागत होते ही अहंता का परिवर्तन कर देता है अर्थात् जो अनेक का था वह एक का होकर रहता है ।
शरणागत के हृदय में यह भाव, कि मैं उनका हूँ, निरन्तर सद्भावपूर्वक रहता है । यह नियम है कि जो जिसका होता है, उसका सब कुछ उसी का होता है तथा वह निरन्तर उसी के प्यार की प्रतीक्षा करता है । प्रेमपात्र के प्यार की अग्नि ज्यों-ज्यों बढ़ती जाती है, त्यों-त्यों शरणागत की अहंता उसी प्रकार तद्रूप होती जाती है, जिस प्रकार लकड़ी अग्नि से अभिन्न होती जाती है । अहंता के समूल नष्ट होने पर भेदभाव का शरणागत भी अभेद-भाव का शरणागत हो जाता है ।
भेदभाव का शरणागत भी शरण्य से किसी भी काल में विभक्त नहीं होता, जिस प्रकार पतिव्रता स्त्री पिता के घर भी पति से विभक्त नहीं होती ।
क्रमशः-
----- 'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से,
भेद तथा अभेद भाव के शरणागत में अन्तर केवल इतना रहता है कि भेदभाव का शरणागत विरह एवं मिलन दोनों प्रकार के रसों का आस्वादन करता है और अभेद-भाव का शरणागत अपने में ही शरण्य का अनुभव कर नित्य एक रस का अनुभव करता है । अनुभव का अर्थ उपभोग नहीं है । उपभोग तो संयोग से होता है । उपभोग-काल में कर्ता में भोक्ता-भाव शेष रहता है । परन्तु मिलन का रस ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों भोक्ता की सत्ता मिटती जाती है । इसी कारण उपभोग-कर्ता कभी निर्वासना को प्राप्त नहीं होता । परन्तु शरणागत निर्वासना को प्राप्त होता है । वासनायुक्त प्राणी शरणापन्न नहीं हो सकता अथवा यों कहो कि शरणागत में वासना शेष नहीं रहती ।
यदि कोई यह कहे कि शरण्य की वासना भी वासना है । तो विचार दृष्टि से देखने पर ज्ञात होता है कि शरणागत की शरण्य आवश्यकता है, वासना नहीं; क्योंकि वासना का जन्म भोगासक्ति एवं प्रमाद से होता है और आवश्यकता भोगासक्ति मिटने पर जाग्रत होती है । जिस प्रकार सूर्य का उदय एवं अन्धकार की निवृत्ति युगपत् है, उसी प्रकार भोगासक्ति की निवृत्ति और आवश्यकता की जागृति युगपत् है । अत: यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि शरण्य की आवश्यकता वासना नहीं है । यद्यपि आवश्यकता की सत्ता कुछ नहीं, परन्तु प्रेमास्पद को न जानने की दूरी के कारण प्रेमपात्र ही आवश्यकता के रूप में प्रतीत होता है, जिस प्रकार धन की आवश्यकता ही निर्धनता है । इसी कारण विरही शरणागत भक्त विरह के रस में मुग्ध रहता है ।
शरणापन्न की सार्थकता तब समझनी चाहिए, कि जब शरण्य शरणागत हो जाए, क्योंकि प्रेमी की पूर्णता तभी सिद्ध होती है, जब प्रेमपात्र प्रेमी हो जाता है । प्रेमपात्र के प्रेमी होने पर प्रेमी प्रेमपात्र के माधुर्य से छक जाता है । शरण्य के माधुर्य का रस इतना मधुर है कि शरणागत, शरणागत-भाव का त्याग न करने के लिए विवश हो जाता है । बस, यही भेद-भाव की शरणागति है। जब भेदभाव की शरणागति सिद्ध हो जाती है, तब शरण्य शरणागत को स्वयं बिना उसकी रुचि के उसी प्रकार अपने से अभिन्न कर लेते हैं, जिस प्रकार चोर बिना ही इच्छा के दण्ड पाता है ।
क्रमशः-
शरणागत होने के पूर्व प्राणी की अहंता अनेक भागों में विभक्त रहती है। शरणागत होने पर अनेक भाव एक ही भाव में विलीन हो जाते हैं । जब अनेक भाव एक ही भाव में विलीन हो जाते हैं, तब प्राणी को एक जीवन में दो प्रकार के जीवन का प्रत्यक्ष अनुभव होता है । एक तो उसका वास्तविक जीवन होता है, दूसरा उसका अभिनय। शरणागत का वास्तविक जीवन केवल शरण्य का प्यार है। शरणागत का अभिनय धर्मानुसार विश्व-सेवा है, अर्थात् विश्व शरणागत से न्यायपूर्वक जो आशा रखता है, शरणागत विश्व की प्रसन्नता के लिए वही अभिनय करता है ।
यह नियम है कि अभिनय में सद्भाव नहीं होता, क्रिया-भेद होने पर भी प्रीतिभेद नहीं होता है । अभिनयकर्ता अपने आपको नहीं भूलता तथा उसकी अभिनय में जीवन-बुद्धि नहीं होती। अभिनय के अन्त में उस स्वीकृत भाव का अत्यन्त अभाव हो जाता है । बस उसी काल में शरणागत सब ओर से विमुख होकर शरण्य की ओर हो जाता है ।
प्राकृतिक नियम के अनुसार अनन्त शक्ति निरन्तर प्रत्येक प्राणी को स्वभावत: अपनी ओर आकृष्ट करती रहती है, परन्तु स्वतन्त्रता नहीं छीनती और न शासन करती है । यदि वह स्वत: आकर्षित न करती, तो प्राणी के सीमित प्यार को निरन्तर छिन्न-भिन्न न करती रहती । यह नियम है कि जो वस्तु जिससे उत्पन्न होती है, अन्त में उसी में विलीन होती है । अत: अनन्त शक्ति से उद्भूत प्रेम की पवित्र धारा अनन्त शक्ति ही में विलीन होगी । उसे वस्तु, अवस्था एवं परिस्थितियों में बाँधने का प्रयत्न व्यर्थ चेष्टा है । शरणागत-भाव होने पर प्रेम की पवित्र धारा शरण्य ही में विलीन होती है ।
क्रमशः-
जो प्राणी उस अनन्त ऐश्वर्य-माधुर्य-सम्पन्न नित्य-तत्त्व के शरणापन्न नहीं होते वे बेचारे अनेक वस्तुओं एवं परिस्थितियों के शरणापन्न रहते हैं जैसे, कामी कामिनी के, लोभी धन के, अविवेकी शरीर के; क्योंकि स्वीकृतिमात्र से उत्पन्न होने वाली अहंता अनेक भावों में विभक्त होती रहती है। वह जब-जब जिस-जिस भाव को स्वीकार करती है, तब-तब उसी के शरणापन्न होती है । सत्य के शरणापन्न होने वाला प्राणी अपने को स्वीकृतिजन्य अहंता से मुक्त कर लेता है ।
शरणागत की अहंता निर्जीव अर्थात् भुने हुए बीज की भाँति केवल प्रतीति मात्र रहती है, क्योंकि उसमें से सीमित भाव एवं स्वीकृति-जन्य सत्ता मिट जाती है । जब प्राणी सीमित भाव एवं स्वीकृति को ही अपनी सत्ता मान बैठता है, तब अनेक प्रकार के विघ्न उत्पन्न हो जाते हैं । गहराई से देखिए, यद्यपि प्रत्येक प्राणी में प्यार उपस्थित है, परन्तु स्वीकृति-मात्र को सत्ता मान लेने से प्यार जैसा अलौकिक तत्व भी सीमित हो जाता है। सीमित प्यार संहार का काम करता है, जो प्यार के नितान्त विपरीत है । जैसे देश के प्यार ने अन्य देशों पर, सम्प्रदाय के प्यार ने अन्य सम्प्रदायों पर, जाति के प्यार ने अन्य जातियों पर अत्याचार किया है जो मानव-जीवन के सर्वथा विरुद्ध है। आस्तिकतापूर्वक शरणागत होने से स्वीकृति-जन्य सत्ता मिट जाती है । स्वीकृति-जन्य सत्ता के मिटते ही सीमित अहंभाव शेष नहीं रहता । सीमित अहंभाव के निःशेष होते ही अलौकिक प्यार विभु हो जाता है, जो वास्तव में मानव-जीवन है ।
क्रमशः-
प्राणी की स्वाभाविक प्रगति अपने केन्द्र के शरणापन्न होने की है । अब विचार यह करना है कि हमारा केन्द्र क्या है ? केन्द्र वही हो सकता है कि जिसकी आवश्यकता हो । आवश्यकता नित्य-जीवन, नित्य-रस एवं सब प्रकार से पूर्ण और स्वतन्त्र होने की है । अत: हमारा केन्द्र वही हो सकता है, जो सब प्रकार से पूर्ण एवं स्वतन्त्र हो । हमें उसी के शरणापन्न होना है ।
हम सबसे भारी भूल यही करते हैं कि अपने केन्द्र तक पहुँचने के पूर्व मार्ग में अनेक इच्छाओं की पहाड़ियाँ स्थापित कर, स्वाभाविक प्रगति को रोक देते हैं; यद्यपि अनन्त शक्ति उन पहाड़ियों को उसी प्रकार प्यारपूर्वक छिन्न-भिन्न करने का निरन्तर प्रयत्न करती है, जैसे माँ बालक को सिखाने का प्रयत्न करती है ।
हम उस अनन्त शक्ति का विरोध करने का विफल प्रयास क़रते रहते हैं, यह परम भूल है । महामाता प्रकृति हमको निरन्तर यह पाठ पढ़ा रही है कि सीमित सत्ता अनन्तता के शरणापन्न होती है; जिस प्रकार नदी समुद्र की ओर और बीज वृक्ष की ओर निरन्तर प्रगतिशील है । कोई भी वस्तु एवं अवस्था ऐसी नहीं है, जो निरन्तर परिवर्तन न कर रही हो, मानो हमें सिखा रही हो कि हमको किसी भी सीमित भाव में आबद्ध नहीं रहना चाहिए, प्रत्युत् अपने परम स्वतन्त्र केन्द्र की ओर प्रगतिशील होना चाहिए, जो शरणागत होने पर सुगमतापूर्वक हो सकता है ।
यह अखण्ड नियम है कि कोई भी भाव तब तक सजीव नहीं होता, जब तक कि वह विकल्प-रहित न हो जाए । जिस प्रकार बोए हुए बीज को किसान बोकर विकल्परहित हो जाता है, अर्थात् बीज को बार-बार निकाल कर देखता नहीं है और न सन्देह करता है, तब बीज पृथ्वी से घुल-मिलकर अपने स्वभावानुसार विकास पाता है । उसी प्रकार शरणागत अनन्त ऐश्वर्य-माधुर्य-सम्पन्न सत्ता से घुल-मिलकर अपने स्वभावानुसार विकास पाता है और सीमित स्वभाव को मिटाकर उससे अभिन्न भी हो जाता है। किन्तु उसका शरणागतभाव निर्विकल्प होना चाहिए, क्योंकि सद्भाव में विकल्प नहीं होता है ।
क्रमशः-
[स्वामी श्री शरणानन्द जी महाराज ]
शरणागति तत्त्व 7⃣
शरणागत में मानव-जीवन स्वभावत: उत्पन्न होता है । जब शरणागत शरणापन्न हो जाता है, तब ऋषि-जीवन का अनुभव कर, अपने ही में अपने शरण्य को पाता है । शरणागत और शरणापन्न में अन्तर केवल यही है कि शरणागत शरण्य के प्रेम की प्रतीक्षा करता है और शरणापन्न प्रेम का आस्वादन करता है ।
शरणागति अभ्यास नहीं है, प्रत्युत् सद्भाव है । शरणागति भाव का सद्भाव होने पर प्राणी का समस्त जीवन शरणागतिमय हो जाता है अर्थात् शरणागत केवल मित्र के लिए मित्र, पुत्र के लिए पिता, पिता के लिए पुत्र, गुरु के लिए शिष्य, शिष्य के लिए गुरु, पति के लिए पत्नी, पत्नी के लिए पति, समाज के लिए व्यक्ति और देश के लिए ही देशीय होता है । जो-जो व्यक्ति उससे न्यायानुसार जो-जो आशा करता है, उसके प्रति शरणागत वही अभिनय करता है । अपने लिए वह शरण्य से भिन्न और किसी की आशा नहीं करता, अथवा यों कहो कि शरणागत सबके लिए सब कुछ होते हुए भी, अपने लिए शरण्य से भिन्न किसी अन्य की ओर नहीं देखता । जब शरणागत अपने लिए किसी भी व्यक्ति, समाज आदि की अपेक्षा नहीं करता तब अभिनय के अन्त में शरणागत के हृदय
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