🙏🏼 *||ॐ||* 🙏🏼
केहू भाँति कृपासिंधु मेरी ओर हेरिये।
मोको और ठौर न, सुटेक एक तेरिये।।
सहस सिलातें अति जड़ मति भई है।
कासों कहौं कौन गति पाहनहिं दई है।।
पद-राग-जाग चहौं कौसिक ज्यों कियो हौं।
कलि-मल खल देखि भारी भीति भियो हौं।।
करम-कपीस बालि -बली, त्रास-त्रस्यो हौं।
चाहत अनाथ-नाथ! तेरी बाँह बस्यो हौं।।
महा मोह-रावन बिभीसन ज्यों हयो हौं।
त्राहि, तुलसीस! त्राहि तिहूँ ताप तयो हौं।।
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भावार्थ---
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हे कृपासागर! किसी भी तरह मेरी ओर देखो। मुझे और कहीं ठौर-ठिकाना नहीं है, एक तुम्हारा ही पक्का आसरा है। मेरी बुद्धि हजार शिलाओं से भी अधिक जड़ हो गयी है। अब मैं उसे चैतन्य करने के लिए किससे कहूँ? तुम्हारे सिवा जड़ पत्थरों को किसने मुक्त किया है?
जिस प्रकार महर्षि विश्वामित्र ने तुम्हारी देख-रेख में निर्विघ्न यज्ञ किया था, उसी प्रकार मैं भी तुम्हारे चरणों में प्रेमरूपी एक यज्ञ करना चाहता हूँ। किन्तु कलि के पापरूपी दुष्टों को देखकर मैं बहुत ही भयभीत हो रहा हूँ।
कुटिल कर्मरूपी बन्दरों के बलवान राजा बालि से मैं बहुत डर रहा हूँ, सो हे अनाथों के नाथ! जैसे तुमने बालि को मारकर सुरत रूपी सुग्रीव को निष्कंटक कर दिया था, उसी प्रकार मैं भी आपकी छत्रछाया में बसना चाहता हूँ। इन कठिन कर्मों से बचाकर आप मुझे अपना लीजिये।
जैसे मोहरूपी रावण ने जीवरूपी विभीषण पर प्रहार किया था , उसी प्रकार मुझे भी यह महान् मोह मार रहा है; हे स्वामी ! मैं संसार के तीनों तापों से जला जा रहा हूँ, मेरी रक्षा करो! रक्षा करो!!
*||ॐ श्री परमात्मने नमः||*
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