Sunday, 20 November 2016

मन ही बन्धन मोक्ष का कारण

मन ही बन्धन एवं मोक्ष का कारण है । मन विषयोँ मेँ आसक्त हो जाय तो बन्धन का कारण बनता है , यदि मन परमात्मा मेँ आसक्त हो जाय तो मोक्ष का कारण बन जाता है "
!! चेतः खल्वस्य बन्धाय मुक्तये चात्मनो मतम् ।
गुणेषु सुक्तं बन्धाय रतं वा पुसिं मुक्तये ।। !!
भगवान मनुष्य का शरीर नहीँ बल्कि हृदये देखते हैँ । मन की विशालता प्रभु को आकर्षित करती है । मन मे छिपी अहंता ममता , स्व-पर की भावना मन को दुःखी करती है । मन के ये धर्म आत्मस्वरुप मेँ भासमान होने के कारण आत्मा स्वयं को सुखी दुःखी मानती है , परन्तु वास्तव मेँ वह आनन्द स्वरुप है । भगवान सुख दुःख के दाता है , अहमन्यता और ममता उन्हीँ पर छोड़ने से ही आनन्द मिलता है ।
मन अधोगामी है । मनुष्य का मन पानी की भाँति गडढे की ओर ही बहता है । जैसे जल ऊपर नही चढता वैसे ही मन का स्वभाव भी ऊपर नहीँ जाता । मन को ऊपर उठाते हुए भगवान के चरणोँ तक ले जाना है । जिस प्रकार यंत्र का संग पाने पर जल ऊपर चढ़ता है ,उसी प्रकार मंत्र का संग पाने पर अधोगामी मन ऊर्ध्वगामी बनेगा , अतः मन को मंत्र का संग देना चाहिए
!! श्रीराम जय राम जय जय राम !!
जिसने अपना मन सुधार लिया है , वह दूसरोँ का भी मन सुधार सकेगा । मन सुधारने के लिए कोई और साधन नही है , बल्कि  मन शब्द को उलट देना है , अर्थात् नम । नम और प्रभु के नाम ही मन को सुधारेँगे ।
मन को स्थिर करने के लिए नामजप की आवश्यकता है । जप से मन की मलिनता और चंचलता दूर होती है ।
अतः किसी भी मंत्र का जप करना चाहिए । सांसारिक विषयोँ के संग से बिगड़ा हुआ मन ईश्वर का ध्यान करने से ही सुधरेगा । सभी के अन्दर मेँ परमात्मा हैँ फिर भी वे सभी का दुःख दूर नहीँ करते है । चैतन्यरुप परमात्मा मन बुद्धि को प्रकाश देते हैँ किन्तु इस तेजोमय स्वरुप को हम देख नहीँ पाते हैँ ।
भगवान का निर्गुण रुप सूक्ष्म होने के कारण दिखाई नही देता और सगुण रुप तेजोमय होने के कारण हम देख नही पाते । इसलिए हमारे लिए भगवान का नामस्वरुप , मंत्रस्वरुप ही इष्ट है । भगवान स्वयं को छिपा सकते है किन्तु अपने नाम को नहीँ । नामरुप प्रकट है अतः भगवान के नामस्वरुप का आश्रय ग्रहण करना चाहिए क्योँकि
!!   कलियुग केवल नाम अधारा। 
सुमिरि सुमिरि नर उतरहि पारा ।।
भाव कुभाव अनघ आलसहूँ ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ।।     !!
  > जय श्री राम -

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