मनुष्य कर्म करता है कुछ चाहकर , फल की आशा रखकर और चिरकाल तक तरह तरह की इच्छाओँ से प्रेरित होकर कर्म करता रहता है । कभी कभी जब इच्छाएँ पूरी होने मेँ बाधा पड़ने से और संघर्ष की विकट दशाएँ आ जाने से अथवा मन के अनुकूल फल न मिल पाने पर वह ऊबता है तो कर्म से बिमुख होकर सन्यास ले लेता है या ले लेना चाहता है ।
जब कभी तो वह कर्म करना चाहता है और कभी कर्म से हार मान लेता है । यह है द्वन्द्व जो मनुष्य को थका मारने और पीड़ित करने का कारण । इस दशा मेँ उसके लिए हितकारी होगा कि वह सामने उपस्थित परिस्थितियाँ तथा कर्त्तव्य कर्मो को स्वीकार कर क्रियाशील बना रहे ।।
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