Sunday, 27 November 2016

अत्रि

अत्रि > ,निरूक्त में अत्रि शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार दी गयी है ---"अत्रैव -अत्र एव इति अत्रि: "    अर्थात् जो यहीं रहता है उसका नाम अत्रि है.! संसार मे सम्प्रदाय चलाने वाले जो आचार्य होते है वे दूसरे सम्प्रदाय वाले से लड़ते और उनका दोष भी दिखाते है ,उनमे पूर्णता नहीं होती, पूर्णता होगी भी तो उनकी अन्तरात्मा मे, बाहर मे अपने सम्प्रदाय का ही पोषण होगा.!  किन्तु जो अवधूत होता है, वह किसी संप्रदाय में बंधा हुआ नहीं होता वह अत्रि होता है त्रिगुणातीत होता है -- न त्रि ! सत , रज , तम , इन तीनोँ गुणोँ का जो नाश करे और निर्गुणी बने वही अत्रि है । सत,रज,तम, इन तीनोँ गुणोँ मेँ जीव मिल गया है ।
तर्जनी उंगली जीव भाव बताती है अभिमान बताती है। जीव मे अभिमान प्रधान है। पाँचवी उंगुली सत्वगुण है अँगूठा ब्रह्मा है , इसीलिए पुष्टि सम्प्रदाय मेँ प्रभू को तिलक अँगूठे से लगाया जाता है । जीव और ब्रह्मा का सम्बन्ध सतत् होना चाहिए ।
तीन गुणोँ मे जीव मिलता है , और इन तीन गुणो को त्यागकर जीव ब्रह्म सम्बन्ध करता है । जो त्रिगुणातीत ब्रह्मस्वरुप को प्राप्त हुआ है , वही अत्रि है ।
शरीर मेँ विद्यमान तमोगुण को रजोगुण से दूर करना है , रजोगुण को सतोगुण से मारना चाहिए । रजोगुण काम एवं क्रोध का जनक है । सत्कर्म से सत्वगुण बढ़ता है किन्तु सत्वगुण भी बंधनकारक है इसमे भी थोड़ा अहंभाव रह जाता है । अतः अंत मेँ सत्वगुण का भी त्याग करके निर्गुणी बनना चाहिए ।
  अत्रि की पत्नी का नाम था अनसूया  अर्थात् जिसको किसी में दोष न दिखे ।  अनुसूया शब्द का अर्थ है  अनुसूते  अनुपूर्वक षू धातु   । यदि जीव अत्रि हो तो उसकी बुद्धि अनसूया हो । असूया रहित बुद्धि ही अनसूया है । बुद्धि मेँ सबसे बड़ा दोष असूया मत्सर है । दूसरोँ भला देखकर ईर्ष्या करना , जलना यही असूया या मत्सर है ।
साधुओ की दो  कोटि होती है एक ईश्वर कोटि की दूसरी ब्रह्म कोटि की  । जो किसी संप्रदाय मे होते हैं वेईश्वर कोटि के होते हैं । नियन्ता होते है.!  जो संप्रदाय मे रहकर भी उससे मुक्त हो जाते है वे अवधूत कोटि के ब्रह्म कोटि के हो जाते  है । न किसी संप्रदाय को बढ़ाते है न किसी संप्रदाय की निंदा करते है । दूसरो के दोषो का विचार श्रीकृष्ण दर्शन मेँ बाधक है । बुद्धि मेँ जब तक असूया मत्सर होगा तब तक ईश्वर का चिँतन नहीँ कर सकेगेँ । भगवान का दर्शन सब मेँ करना है । यदि जीव सबमेँ ईश्वर दर्शन करे । तो वह कृतार्थ होता है । जिसकी बुद्धि असूयारहित होती है वही अत्रि बनता है । तत्पश्चात दत्तात्रेय पधारते हैँ । जीव तीन गुणो का त्याग करके निर्गुणी बने और बुद्धि असूयारहित बने तब ईश्वर प्रकट होते हैँ ।।. अत्रि ब्रह्म -कोटि के महात्मा बाद, और उनकी पत्नी अनसूया किसी में दोष नहीं देखती. इसलिए उनके यहाँ ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा, विष्णु के अंश से दत्तात्रेय. ,एवं महादेव के अंश से दुर्वासा पुत्र रूप मे पधारे.!!!!!

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