Sunday, 6 November 2016

प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग , भाग 1

[ स्वामी श्री शरणानन्द जी महाराज ]
प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग—1⃣

साधारणतया हम बुद्धि और विवेक को एक मान लेते हैं, परन्तु विचार करने पर यह स्पष्ट होता है कि बुद्धि तो एक प्राकृतिक यन्त्र के समान है और विवेक प्रकृति से अतीत अर्थात् अलौकिक तत्व है । जैसे, बिद्युत एक शक्ति है और उसका प्रकाश सर्व साधारण को बल्ब आदि के साधनों द्वारा प्रतीत होता है; विज्ञान का ज्ञाता ही इस बात को जानता है कि प्रकाश बल्ब का नहीं, विद्युत का है । इसी प्रकार साधारण प्राणी अलौकिक विवेक को बुद्धि का गुण मानता है; किन्तु तत्वदर्शी बुद्धि को विवेक का प्रकाश-मात्र मानता है ।

विवेक अपरिवर्तनशील और बुद्धि परिवर्तनशील है । बुद्धि प्रकृति का कार्य है और विवेक प्रकृति से परे की अलौकिक विभूति है। जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश से ही दीपक और विद्युत् का प्रकाश प्रकाशित होता है, उसी प्रकार अलौकिक विवेक के प्रकाश से ही बुद्धि और इन्द्रियों का ज्ञान प्रकाशित होता है । जब प्राणी अलौकिक विवेक के प्रकाश से अपनी बुद्धि को शुद्ध कर लेता है, तब शुद्ध बुद्धि मन को निर्मल कर देती है । और, मन की निर्मलता इन्द्रियों के व्यापार में शुद्धता का संचार कर देती है। इन्द्रियों के शुद्ध व्यापार से ही मनुष्य के चरित्र का निर्माण होता है और सच्चरित्रता से समाज सुन्दर बनता है । अत: यह सिद्ध हुआ कि विवेक का आदर करने में ही सुन्दर समाज के निर्माण का सामर्थ्य निहित है और अपना कल्याण भी विवेक के आदर से ही सम्भव है ।

  इसके विपरीत जब प्राणी निज-विवेक का अनादर करता है, तब इन्द्रियों के ज्ञान को ही पूरा ज्ञान मान बैठता है, जो वास्तव में प्रमाद है । इन्द्रियों के ज्ञान को सही ज्ञान मान लेने पर राग उत्पन्न होता है । राग से भोग में प्रवृत्ति होती है, जो प्राणी में स्वार्थ-भाव दृढ़ कर देती है । स्वार्थ-भाव दृढ़ होते ही असीम प्यार मिट जाता है, जिसके मिटते ही देहाभिमान पुष्ट हो जाता है। देहाभिमान पुष्ट हो जाने पर भिन्न-भिन्न प्रकार की वासनाएँ उत्पन्न होने लगती हैं जो प्राणी को पराधीनता, जड़ता और शोक में आबद्ध कर देती हैं ।
क्रमशः-

----- 'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 4-5) ।

[स्वामी श्री शरणानन्द जी महाराज ]
प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग —2⃣

जब प्राणी इन्द्रियों के ज्ञान को ही पूरा ज्ञान नहीं मानता, तब बुद्धि के ज्ञान का आदर करने लगता है । बुद्धि का ज्ञान वस्तु, अवस्था और परिस्थितियों की नित्यता को खा लेता है और उनमें सतत् परिवर्तन का दर्शन कराता है, जिससे राग वैराग्य में बदलने लगता है और भोग योग में बदल जाता है । योग हमें जड़ता से चिन्मयता और पराधीनता से स्वाधीनता एवम् अनित्य से नित्य की ओर प्रेरित कर देता है, अर्थात् विषयों से विमुख होकर इन्द्रियाँ मन में और मन बुद्धि में विलीन हो जाता है । मन के विलीन होते ही बुद्धि सम हो जाती है । बस, यही योग है । इसके दृढ़ होने पर जो बुद्धि से परे अलौकिक विवेक है उससे अभिन्नता हो जाती है और अविवेक सदा के लिये मिट जाता है । विवेक से अभिन्न होते ही अमर जीवन की प्राप्ति होती है, जो मानव की माँग है । अत: यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि अलौकिक विवेक के आदर से ही हम अपना कल्याण तथा सुन्दर समाज का निर्माण कर सकते हैं, जो मानवता है ।

यह मानवता हमें सुख-दुःख का सदुपयोग करने के लिये मिली है, इनके उपभोग-मात्र के लिये नहीं । यदि प्राकृतिक नियमानुसार विचार किया जाय, तो सुख-दुःख का उपभोग तो मानव-जीवन के अतिरिक्त अन्य योनियों में भी किया जा सकता है । सुख-दुःख का सदुपयोग करने पर मानव सुख-दुःख से अतीत जो अनन्त चिन्मय जीवन है, उससे अभिन्न हो सकता है। सुख का सदुपयोग उदारता और दुःख का सदुपयोग विरक्ति है। उदारता आ जाने पर हृदय पराये दुःख से भर जाता है और फिर मानव करुणित होकर प्राप्त सुख को दुखियों  को समर्पित कर देता है । करुण रस ज्यों-ज्यों सबल तथा स्थायी होता जाता है, त्यों-त्यों सुख की आसक्ति स्वत: गलती जाती है। सुखासक्ति गल जाने पर भोग वासनाएँ समाप्त हो जाती हैं । 

भोग-वासना मिटते ही तत्व जिज्ञासा स्वतः जागृत होती है, जो स्वत: पूर्ण हो जाती है । कारण कि, जिसमें जातीय तथा स्वरूप की एकता है, उसकी प्राप्ति के लिए कोई प्रयत्न अपेक्षित नहीं है, केवल उसकी आवश्यकता की जागृति ही उसकी प्राप्ति का उपाय है । अर्थात् उसके लिए कोई कर्म- अनुष्ठान अपेक्षित नहीं है । जिसके लिए किसी कर्म विशेष की अपेक्षा नहीं होती, उसके लिए किसी वस्तु, अवस्था, व्यक्ति अथवा परिस्थिति-विशेष की आवश्यकता नहीं होती । परिस्थितियों की आवश्यकता तो सुख-दुःख के भोगने के लिये ही होती है । यह अवश्य है कि परिस्थितियों से असंग होने के लिये प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग करना अनिवार्य है । आस्तिक परिस्थितियों का सदुपयोग अपने प्रभु के नाते करता है, अध्यात्मवादी सर्वात्म-भाव से करता है और भौतिकवादी विश्व के नाते करता है ।
क्रमशः-

-----'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 5-7) ।

[स्वामी श्री शरणानन्द जी महाराज ]
प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग —3⃣

यह नियम है कि जो प्रवृत्ति जिस सद्भावना से प्रेरित होकर की जाती है उस प्रवृत्ति का कर्त्ता उसी भावना में विलीन हो जाता है । अत: प्रभु के नाते की हुई प्रवृत्ति जीवन को प्रभु के प्रेम से भर देती है, सर्वात्म-भाव से की हुई प्रवृत्ति आत्मरति उत्पन्न कर देती है और विश्व के नाते की हुई प्रवृत्ति विश्व के प्यार से भर देती है। प्रेम, रति तथा प्यार में यह सामर्थ्य है कि वे किसी प्रकार का स्वार्थ-भाव तथा भोग-वासना शेष नहीं रहने देते । यह प्रत्येक भाई-बहन का अनुभव है कि स्वार्थ-भाव तथा भोग-वासना के बिना किसी भी दोष की उत्पत्ति नहीं हो सकती, अर्थात् जीवन निर्दोषता से परिपूर्ण हो जाता है । यह भी नियम है कि दोष की पुनरावृत्ति न होने पर सभी दोष स्वत: मिट जाते हैं, क्योंकि दोषों की स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती, किसी गुण के अभिमान पर ही वे जीवित रहते हैं । निर्दोषता दोषों को उत्पन्न नहीं होने देती और गुणों के अभिमान को भी खा लेती है, यह उसका स्वभाव ही है।  गुणों का अभिमान तब होता है, जब प्राणी स्वाभाविक गुणों को त्यागकर दोषों को अपनाने के पश्चात् पुन: बलपूर्वक दोषों को दबाता है और जीवन में गुणों की स्थापना करता है ।

  यह नियम है कि कर्त्तृत्वाभाव से जिसकी स्थापना की जाती है, वह स्वाभाविक नहीं होती और जो स्वाभाविक नहीं है, उसको अभिमान के बल से जीवित रखना पड़ता है । अभिमान भेद उत्पन्न करता है और भेद प्रीति को सीमित कर देता है। सीमित प्रीति दोषों को जीवित रखती है । अत: यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि जब तक हमारे जीवन में कोई भी गुण कर्त्तव्य के अभिमान के साथ रहता है, तब तक उसके आधार पर दोषों को जीवन मिलता रहता है, क्योंकि गुण को, जो स्वाभाविक सत्ता थी, अपनी स्थापित की हुई वस्तु मान लिया गया है । जैसे मिथ्या बोलने से पूर्व सभी सत्य बोलते थे, किसी ने आरम्भ से ही मिथ्या नहीं बोला । मिथ्या बोलने का स्वभाव तो निज-विवेक का अनादर करके उत्पन्न किया था ।
क्रमशः-

-----'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 7-8) ।

[ स्वामी श्री शरणानन्द जी महाराज ]
प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग —4⃣

  दोष उसे नहीं कहते जो बिना जाने किया जाए । किये हुए दोषों को दबाने के लिये जो प्रयास है, वही गुण का अभिमान है । विवेकपूर्वक दोष का त्याग ही की हुई भूल का प्रायश्चित्त है, गुण का अभिमान नहीं। जब हमने मिथ्या बोल कर, मिथ्या बोलने को न दोहराने का प्रायश्चित्त किया, तो फिर 'मैं सत्यवादी हूँ' ऐसे अभिमान के लिए कोई स्थान ही नहीं है । परन्तु हम अभिमान कर बैठे, जिसने सत्यवादी तो बना दिया, परन्तु भेद उत्पन्न करके नये दोषों की उत्पत्ति कर दी । यदि आज हमारे जीवन में गुणों का अभिमान न रहे, तो हम परस्पर विचार-भेद, वर्ग-भेद, सम्प्रदाय-भेद आदि के होने से प्रीति-भेद अथवा लक्ष्य-भेद को न अपनाएँ, जो वास्तव में अमानवता है । मानवता प्रीति भेद को समाप्त कर बाह्य और अन्तर के संघर्ष को भी खा लेती है ।

अब रही बात दुःख के सदुपयोग की । दुःख का सदुपयोग विरक्ति है । विरक्ति का अर्थ रूठकर अकेले बैठ जाना नहीं है, और न केवल अनिकेत (गृहहीन) हो जाना और न नंगा हो जाना है। यह सब तो विरक्त का बाह्य श्रृंगार-मात्र है । विरक्ति का वास्तविक अर्थ है, इन्द्रियों के विषयों से अरुचि अर्थात् भोग की अपेक्षा भोक्ता का मूल्य बढ़ा लेना । भोक्ता भोग के बिना भी सहर्ष रह सके, यही उसका मूल्य बढ़ जाना है । अब प्रश्न यह है कि भोग भोक्ता को प्रकाशित करता है या भोक्ता भोग को? यह तो मानना ही होगा कि भोक्ता जिस भोग को अपना कहता है, उस भोग ने भोक्ता को कभी अपना नहीं कहा, और न भोक्ता की सत्ता के बिना भोग प्रकाशित हुआ । भोग और भोगने के साधन इन दोनों को भोक्ता ही प्रकाशित करता है । जैसे, देखने की रूचि ही नेत्र तथा रूप को प्रकाशित करती है । नेत्र में देखने की क्रिया है, देखने की रुचि नहीं । देखने की रुचि तो उसमें है जो नेत्र को अपना मानता है अथवा यों कहो कि, जो उसके अभिमान को स्वीकार करता है ।

  यदि भोक्ता भोग की रुचि का त्याग कर दे, तो सभी भोगों और भोग के साधनों का कोई महत्व नहीं रह जाता । इतना ही नहीं, वे अपनी-अपनी सत्ता को त्याग कर भोक्ता में विलीन हो जाते हैं । फिर जो भोग का प्रकाशक था, उसो की सत्ता शेष रह जाती है । भोग और भोगने के साधनों का अस्तित्व नहीं रहता और न किसी प्रकार की विषमता शेष रहती है । उसके मिटते ही चिर-शान्ति तथा स्थायी प्रसन्नता आ जाती है, जो दु:ख को खाकर अनन्त चिन्मय जीवन से अभिन्न कर देती है । इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि सुख-दुःख का सदुपयोग मानवता है, जो हमें सुख-दुःख से मुक्त करने में समर्थ है ।
क्रमशः-

-----'मानव की माँग' पुस्तक से, (Page No. 8-10) ।

[स्वामी श्री शरणानन्द जी महाराज ]
प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग —5⃣

मानव-जीवन सुख-दुःख का भोग करने मात्र के लिए नहीं मिला है, अपितु उनके बन्धन से मुक्त होने के लिए मिला है । सुख-दुःख भोगने का अवसर तो मानव से अतिरिक्त अन्य योनियों में भी होता है । परन्तु, उन योनियों में सुख-दुःख से उपर उठने की योग्यता नहीं है । कारण कि, उन योनियों में विवेक का प्रकाश मानव के समान नहीं है । प्राकृतिक नियमानुसार जिन योनियों में विवेक की कमी है, अर्थात् विवेक सुषुप्तवत् है, उन योनियों में सुख-दुःख भोगने की मर्यादा भी स्वत: सिद्ध है । जैसे, पशु यदि भूखा हो और उसका खाद्य-पदार्थ उसके निकट हो, तो वह अपने को रोक नहीं सकता, परन्तु साथ ही बची हुई खुराक का संग्रह भी नहीं कर सकता ।

मानव भले ही अपनी गाय के लिए चारा संग्रह करे, परन्तु बेचारी गाय अपने लिए चारा संग्रह नहीं कर सकती । मानव भूखा हो और अनुकूल भोजन भी प्राप्त हो, परन्तु भोजन  करना यदि उसकी मर्यादा के प्रतिकूल हो, तो वह भूखा रह जायगा । किन्तु कभी स्वाद अथवा आदर की आसक्ति से प्रेरित  होकर वह बिना भूख भी खा लेता है ।

इससे यह सिद्ध हुआ कि मानव वह भी कर लेता है जो उसे करना चाहिये, और प्रमादवश वह भी कर बैठता है जो उसे नहीं करना चाहिये । अपौरुषेय विधान में मानव को ऐसी स्वाधीनता क्यों मिली ? पशुओं की भाँति वह पराधीन क्यों  नहीं बनाया गया ? इसका प्रधान कारण यह है, कि मानव को उस विधान में विवेक मिला है । जिस उदार ने विवेक प्रदान किया, उसने मानव की ईमानदारी पर विश्वास किया कि वह उसका आदर अवश्य करेगा । तो क्या हमें अपने उस दाता के प्रति विश्वासधाती होकर विवेक का अनादर करना चाहिये ? विवेक के अनादर से ही हम वह कर बैठते हैं जो हमें नहीं करना चाहिये ।

वास्तव में जो नहीं करना चाहिये उसे करने का मानव-जीवन में कोई स्थान ही नहीं है । यह नियम है कि जो नहीं करना चाहिये, वह न करने से जो करना चाहिये, वह स्वत: होने लगता है। अत: यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि जो नहीं करना चाहिए, उसका न करना ही मानव का परम पुरुषार्थ है और उसी का नाम मानवता है ।
क्रमशः-

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