Friday, 25 November 2016

नित्य कृतज्ञता प्रकट हो , योगानन्द जी

प्रत्येक दिन जीवन के उपहारों के लिये कृतज्ञता प्रकट करने का दिन होना चाहिये : सूर्य का प्रकाश, जल, तथा रसीले फल एवं सब्जियाँ, जो उस परम दाता के परोक्ष उपहार हैं। ईश्वर हमसे काम करवाते हैं, ताकि हम उन उपहारों को प्राप्त करने के अधिकारी बनें। उन सर्वेश्वर को हमारी कृतज्ञता की आवश्यकता नहीं होती, चाहे वह हृदय की कितनी ही गहराई से आये, परन्तु जब हम उनके प्रति कृतज्ञता का अनुभव करते हैं, तब हमारा मन समग्र निधि के उस परम स्रोत पर एकाग्र हो जाता है। इसमें हमारा अपना ही कल्याण है।
-----------श्री श्री परमहंस योगानन्द

संतवाणी
श्रद्धेय स्वामीजी श्रीशरणानन्दजी महाराज

वाणीसे कटु मत बोलो, सेवा हो गई । अहितकर नहीं बोलोगे, तो हितकर बोलोगे । अनावश्यक न बोलोगे, तो आवश्यक बोलना, कहना, समझना, सब शरीरके द्वारा ही होगा । पर इस तरह शरीरका उपयोग दूसरोंके अहितमें नहीं होगा ।

अहितमें कब होगा ? अपने सुखके लिए शरीरको काममें लेनेसे । अर्थ यह है कि शरीरका उपयोग अपने सुख-भोगमें नहीं करना है । शरीरकी सेवा क्या है ? आहार-विहारका संयम, सदाचार व मर्यादापूर्वक चलना ।

*विचार कीजिये...🤔*
*_जब हमारा जन्म हमारी मर्जी से नहीं होता और मरण भी हमारी मर्जी से नहीं होता, तो इस जन्म-मरण के बीच में होने वाली सारी व्यवस्थाएं हमारी मर्जी से कैसे हो सकती हैं_ ???*
✍🏻.........

कान्हा, मेरे  मन की  सी मत करियो।
जो लागे तोहे हित मेरे,सो तू करियो।।
कान्हा मेरे मन---------
मन छलिया, ना माने तनिक ये मेरी।
भरोसा यापे कभी, मत  तू करियो।।
कान्हा मेरे मन---------
बीती उमरिया, कल कल करते याकी।
मन कहवे, तनिक तू धीरज धरियो।।
कान्हा मेरे मन---------
श्यामा श्याम रसायन, दोउ हितकारी।
ठूंस ठूंस सो मन भीतर तू भरियो।।
कान्हा मेरे मन-------
जो लागे तोहे--------
🙏🏼🙏🏼🙏🏼

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