Tuesday, 22 November 2016

जय विजय और चित्रकेतु ने भगवान के वीर रस हेतु विपरीत अवतरण लिया

गौडीयवैष्णवसम्प्रदायाचार्य श्रील विश्वनाथ चक्रवर्तिपाद के द्वारा रचित ‘माधुर्य-कादम्बिनी’ ग्रन्थ (१७वीं शताब्दी – श्रीधाम वृन्दावन में प्रणीत) की तृतीयामृतवृष्टिः (तीसरे अध्याय) में से –

“यस्तु तत्रापि चित्रकेतौ कादाचित्को महदपराधः स प्रातीतिक एव न वास्तवः । सत्यां प्रेमसम्पत्तौ  पार्षदत्ववृत्रत्वयोर्वैशिष्ट्याभावसिद्धान्तात् । जयविजयोस्त्वपराधकारणं प्रेमविजृम्भिता स्वेच्छैव । सा च ‘हे प्रभुवर  देवादिदेव नारायण अन्यत्राल्पबलत्वातदस्मासु तु प्रातिकूल्याभावाद्यदि तत्र भवतो युयुत्सा न सम्पद्यते तदा आवामेव केनापि प्रकारेण प्रतिकूलीकृत्य तद्युद्धसुखमनुभूयतामित्यावयोः स्वतः परिपूर्णतायामनणुमात्रमपि न्यूनत्वमसहमानयोः किङ्करयोः प्रार्थनाहठ: स्वभक्तवात्सल्यगुणमपि लघुकृत्य निष्पाद्यताम्’ इत्याकारा कादाचित्कप्रसङ्गभवा मानसा मनसैव जेया ।“

अर्थात् –

“भगवत्प्राप्ति के पश्चात् भी राजर्षि चित्रकेतु के विषय में जो महादपराध की बात सुनी जाती है, वह वास्तविक नहीं है, अपितु प्रातीतिक मात्र है । क्योंकि उस महत् अपराध के कारण वृत्रासुर की योनि प्राप्त करने के बाद भी उसमें  प्रेमाभक्ति विद्यमान रहने से उसके भगवत्पार्षदत्व तथा वृत्रत्व के वैशिष्ट्य का अभाव ही सिद्ध होता है । जय-विजय के अपराध का कारण भी तो उनके भगवत्प्रेम से परिवर्द्धित अपनी इच्छा ही थी । और वह थी – ‘हे प्रभो! देवादिदेव नारायण! आपकी युद्ध की इच्छा को पूर्ण कर सके ऐसा कोई भी बलवान व्यक्ति अन्यत्र हमें नहीं दीखता और हममें यदि ऐसा बल है, तो हम आपके प्रतिकूल हो ही नहीं सकते । अतः किसी प्रकार हमें ही अपना प्रतिकूल-विरोधी बनाकर आप युद्ध के सुख (वीररस) का अनुभव करें । आपकी स्वतःपूर्णता में (परब्रह्म की तैतिरीयोपनिषद् की ब्रह्मानन्दवल्ली में उल्लिखिता रसब्रह्मता) बिन्दुमात्र भी ह्रास हो, यह बात हम लोग सहन नहीं कर सकते । अतः आप अपने भक्त वात्सल्य गुण को आच्छादित कर हमारी प्रार्थना को पूर्ण करें, क्योंकि हम आपके दास हैं ।’ (ऐसी कथा विष्णुधर्मोत्तरपुराण में उल्लिखिता है ।) यदि किसी समय प्रसङ्गवश इस प्रकार का मानसिक वासनामय अपराध मन में जागे उठे, तो विचारपरायण बुद्धि वृत्ति के द्वारा मानसिक भाव को जीतकर उसे दबा देना चाहिए ।“

भक्त की भावना से भगवत् भावना विकसित हो लीला प्रकट करती है  ।  यह भगवान का प्रेम है कि जो उन्हें जैसा भजे उसे उसी प्रकार के भाव का सुख प्राप्त हो । प्रेमीभक्त भी भगवत् सुख का ही चिंतन करता है भले उसमें स्व हित अणु भर ना हो ।

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