Saturday, 26 November 2016

भावना

>>> भावना <<<
महत्त्व वस्तु का नही ,
भावना का है ।
सद्भावपूर्वक सेवा करने से
ही सेवा सफल होगी ।
सेवा करते समय रोंगटे खड़े
हो जायँ आँखो से
अश्रुधारा बहने लगे ,
तो उसी को सच्ची सेवा समझना चाहिए।
सेवा मात्र क्रियात्मक
ही नहीँ , भावात्मक
भी होनी चाहिए ।
सेवा करते हुए आनन्द मिले,
वही सेवा है । जो भी करेँ ,
प्रेम से करेँ । भगवान के
लिए भोजन
बनाना चाहिए । भगवान
को अर्पित करने के बाद
ही भोजन करना चाहिए।
साथ मे
प्रार्थना करना चाहिए
कि हे नाथ ! आप
तो विश्वंभर हैँ ,सब के
स्वामी हैँ ।आपको कौन
खिला सकता है?
तो भी यह पदार्थ मै
आपको मन से अर्पण
करता हूँ ।
जो ईश्वर का है वही उन्हेँ
समर्पित करना है
" तेरा तुझको अर्पण
क्या लागे मेरा "
यह जीव दूसरा कुछ कहाँ से
लायेगा ? केवल
भावना का मूल्य ।
परमात्मा तो परिपूर्ण
हैँ ,उन्हेँ कोई
अपेक्षा नहीँ है । उन्हे
किसी भी वस्तु
की क्षुधा नहीँ है ।वे
तो मात्र भाव के भूखे हैँ ।
उन्हे जो भाव से अर्पित
किया जायेगा ,वे
उसका कई गुना अधिक
बनाकर ही वापस करेँगे ।
भक्तिमार्ग मेँ भाव के
बिना सिद्धि प्राप्त
नहीँ होगी ।ज्ञान मार्ग
मेँ त्याग और वैराग्य
आवश्यक है ।
सेवा करने से सेवक को सुख
होता है । भगवान
को तो क्या सुख मिलेगा ?
वे तो परमानन्द स्वरुप हैँ
। जीव को देने
वाला तो ईश्वर ही है ,
किन्तु मनुष्य के निवेदन से
वे प्रसन्न होते हैँ ।
"सेवा और पूजा मेँ भेद -
जहाँ प्रेम का प्राधान्य
है , वह सेवा है और
जहाँ वेदमन्त्र
की प्रधानता है वह
पूजा है ।"
पूजा तो प्रेम से
करनी चाहिए ,
अन्यथा स्नेहादि का समर्पण
व्यर्थ ही रहेगा ।
कहीँ हमारे वस्त्र न गंदे
हो जायँ इस डर से हम
मन्दिर मे साष्टांग दंडवत्
-प्रणाम भी नही करते -->
"नर कपड़न को डरत हैँ ,
नरक पड़न को नाहि !!!
!! जय श्रीमन्नारायण !!

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