आप सोचते हैं कि आपके पास यह या वह वस्तु होना ही चाहिये और तभी आप सुखी होंगे। परन्तु आपकी चाहे जितनी भी इच्छायें क्यों न पूर्ण हो जायें, आप उनके द्वारा कभी सुखी नहीं होंगे। आपके पास जितना अधिक होगा, उतने ही अधिक की आपको चाह होगी। सादगी से जीना सीखिये। भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है : “उसका मन सदा तृप्त रहता है जिसकी इच्छायें सदा अन्तर्मुखी होती हैं। वह मनुष्य एक अपरिवर्तनशील सागर के समान है जो निरन्तर उसमें मिलती जलधाराओं से लबालब भरा रहता है। जो अपनी शान्ति के जलाशय में इच्छाओं के छिद्र कर शान्ति के जल को बाहर बह जाने देता है, वह मुनि नहीं है।”
प्रभु से यह कहना कि हमें कुछ चाहिये अनुचित नहीं है; किन्तु यह और अधिक विश्वास दर्शाता है यदि हम केवल इतना ही कहें : “परमपिता! मैं जानता हूँ कि आपको मेरी हर आवश्यकता का पहले से ही पता है। अपनी इच्छानुसार आप मेरा निर्वाह करें।”
प्रत्येक वस्तु का अपना स्थान होता है, परन्तु जब आप अपने सच्चे सुख की उपेक्षा कर समय गंवाते हैं तो यह अच्छा नहीं। मैंने प्रत्येक अनावश्यक कार्य को छोड़ दिया ताकि मैं ध्यान करके ईश्वर को जान सकूँ; ताकि मैं दिन और रात उनके दिव्य चैतन्य में मग्न रह सकूँ।
ईश्वर के साथ समरस होना और उनमें पूर्ण विश्वास रखना, जहाँ भी वे आपको रखें और आपके साथ जो भी करें उसी में सन्तुष्ट रहना, सब कुछ नम्रता एवं भक्ति से स्वीकार करना, अत्यंत अद्भुत होता है।
भक्ति विकसित करो। जीसस के शब्दों को याद रखो : “हे परमपिता, आपने इन सब बातों को ज्ञानियों और बुद्धिमानों से छिपा कर रखा, तथा अबोध बच्चों पर प्रकट किया है।”
याद रखिये, आपकी इच्छा में ईश्वर की इच्छा समाहित है। अपने हृदय में आपको ईश्वर से अधिक और किसी भी वस्तु से प्रेम नहीं करना चाहिये। प्रभु “ईष्र्यालु” हैं। यदि आप ईश्वर को प्राप्त करना चाहते हैं, तो आपके पास उन्हें पाने की इच्छा के सिवा अन्य सब इच्छाओं को निकाल फेंकने की इच्छा - शक्ति होनी चाहिये।
प्रभु कहते हैं : “जो शरीर, मन और आत्मा में मुझे सर्वव्यापी नित्य - नवीन आनन्द — ध्यान के नित्य बढ़ते परमानन्द — के रूप में जानने के लिये संघर्ष, प्रार्थना, एवं ध्यान करता है, मेरे उस पुत्र की भक्तिमय पुकार का मैं मौन एवं गहन रूप से प्रत्युत्तर देता हूँ।”
--------- श्री श्री परमहंस योगानन्द
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