Thursday, 3 November 2016

शरणागति तत्व शरणानन्द जी महाराज - 2

[स्वामी श्री शरणानन्द जी महाराज ]
शरणागति तत्त्व 7⃣

शरणागत में मानव-जीवन स्वभावत: उत्पन्न होता है । जब शरणागत शरणापन्न हो जाता है, तब ऋषि-जीवन का अनुभव कर, अपने ही में अपने शरण्य को पाता है । शरणागत और शरणापन्न में अन्तर केवल यही है कि शरणागत शरण्य के प्रेम की प्रतीक्षा करता है और शरणापन्न प्रेम का आस्वादन करता है ।

शरणागति अभ्यास नहीं है, प्रत्युत् सद्भाव है । शरणागति भाव का सद्भाव होने पर प्राणी का समस्त जीवन शरणागतिमय हो जाता है अर्थात् शरणागत केवल मित्र के लिए मित्र, पुत्र के लिए पिता, पिता के लिए पुत्र, गुरु के लिए शिष्य, शिष्य के लिए गुरु, पति के लिए पत्नी, पत्नी के लिए पति, समाज के लिए व्यक्ति और देश के लिए ही देशीय होता है । जो-जो व्यक्ति उससे न्यायानुसार जो-जो आशा करता है, उसके प्रति शरणागत वही अभिनय करता है । अपने लिए वह शरण्य से भिन्न और किसी की आशा नहीं करता, अथवा यों कहो कि शरणागत सबके लिए सब कुछ होते हुए भी, अपने लिए शरण्य से भिन्न किसी अन्य की ओर नहीं देखता । जब शरणागत अपने लिए किसी भी व्यक्ति, समाज आदि की अपेक्षा नहीं करता तब अभिनय के अन्त में शरणागत के हृदय में शरण्य के विरह की अग्नि अपने-आप प्रज्वलित हो जाती है ।

अत: शरणागत सब कुछ करते हुए भी शरण्य से विभक्त नहीं होता । गहराई से देखिए, कोई भी ऐसा अभ्यास नहीं है, जिससे साधक विभक्त न हो, क्योंकि संघठन से उत्पन होने वाला अभ्यास किसी भी प्रकार निरन्तर हो ही नहीं सकता। परन्तु शरणागति से परिवर्तित अहंता निरन्तर एकरस रहती है। अन्तर केवल इतना रहता है कि शरणागत कभी तो शरण्य के नाते विश्व की सेवा करता है तथा कभी शरण्य के प्रेम की प्रतीक्षा करता है एवं कभी शरण्य से अभिन्न हो जाता है । वह साधन पूर्ण साधन नहीं हो सकता, जिससे साधक विभक्त हो जाता है, क्योंकि पूर्ण साधन तो वही है, जो साधक को साध्य से विभक्त न होने दे । अत: इस दृष्टि से शरणागति- भाव सर्वोत्कृष्ट साधन है।
क्रमशः-

शरणागति तत्त्व 8⃣

  विचार दृष्टि से यह भली-भाँति सिद्ध होता है कि अहंता के अनुरूप ही प्रवृत्ति होती है । पतित से पतित अहंता भी शरणागत होते ही परिवर्तित हो जाती है । अहंता परिवर्तित होते ही अहंता में जो दोषयुक्त संस्कार अंकित थे, वे मिट जाते हैं । जिस प्रकार पृथ्वी के बिना बीज का उपजना असम्भव है, उसी प्रकार दोषयुक्त अहंता के बिना दोषयुक्त संस्कारों का उपजना असम्भव है । अत: यह भली प्रकार सिद्ध हो जाता है कि पतित से पतित प्राणी भी शरणागत होते ही पवित्र हो जाता है । जिस भाँति मिट्टी कुम्हार की शरणागत होकर कुम्हार की ही योग्यता और बल से कुम्हार के काम आती है और कुम्हार का प्यार पाती है, उसी भाँति शरणागत शरण्य के ही अनन्त
ऐश्वर्य एवं माधुर्य से शरण्य के काम आता है एवं उसका प्यार पाता है । यह नियम है कि जो जिसके काम आता है, वह उसका प्रेमपात्र हो जाता है । अत: इसी नियमानुसार शरणागत शरण्य का शरण्य हो जाता है । भला इससे अधिक सुगम एवं स्वतन्त्र कौन-सा मार्ग है, जो स्वतन्त्रतापूर्वक साधक को शरण्य का शरण्य बना देता है ?

   शरणागत में किसी भी प्रकार का अभिमान शेष नहीं रहता है । दीनता का अभिमान भी अभिमान है । शरणागत दीन नहीं होता क्योंकि उसका शरण्य से पूर्ण अपनत्व होता है । अपनत्व और दासता में भेद है । दासता बन्धन का कारण है और अपनत्व स्वतन्त्रता का कारण है । अपनत्व होने से भिन्नता का भाव मिट जाता है । भिन्नता मिटते ही स्वतन्त्रता अपने-आप आ जाती है। भिन्नता का भाव उत्पन्न होने पर ही प्राणी में किसी न किसी प्रकार का अभिमान उत्पन्न होता है । शरणापन्न होने पर अभिमान गल जाता है । अभिमान गलते ही भिन्नता एकता में विलीन हो जाती है । एकता होने पर भय शेष नहीं रहता । अत: शरणागत सब प्रकार से अभय हो जाता है ।
क्रमशः-

-----'सन्त-समागम भाग-2' पुस्तक से

   भिन्नता 'द्वेष' और एकता 'प्रेम' है । ऐसा कोई दोष नहीं है, जो भिन्नता से उत्पन्न न हो । ऐसा कोई गुण नहीं है, जो एकता से उत्पन्न न हो अर्थात् सभी दोषों का कारण भिन्नता एवं सद्गुणों का कारण एकता है। सूक्ष्म से सूक्ष्म प्रवृत्ति भी सीमित अहंता के बिना नहीं हो सकती, परन्तु शरणापन्न होते ही प्रवृत्ति की आवश्यकता शेष नहीं रहती; अत: प्रवृत्ति निःशेष हो जाती है । प्रवृत्ति का अभाव होते ही सीमित अहंता उसी प्रकार गल जाती है, जिस प्रकार सूर्य की उष्णता से बर्फ गल जाती है । अत: यह निर्विवाद सिद्ध है कि शरणागत होने के अतिरिक्त कोई भी ऐसा उपाय नहीं है, जिससे भिन्नता का नितान्त अन्त हो जाए ।

शरणागत होने का वही अधिकारी है, जो वर्तमान परिस्थिति का सदुपयोग कर अपने लिए नित्य-जीवन एवं नित्य-रस की आवश्यकता का अनुभव करता है । जो प्राणी प्रतिकूल परिस्थिति के साथ-साथ अपना भी मूल्य घटाता जाता है तथा अनुकूल परिस्थिति की आसक्ति में फँसता जाता है; एवं जो परिस्थिति से हार स्वीकार करता है तथा लक्ष्य से निराश हो जाता है, वह न तो आस्तिक हो सकता है और न शरणागत ।

  स्वीकृतिमात्र को ही अपने को आप समझ लेना, तात्विक दृष्टि से अपना मूल्य घटाना है । प्रेमपात्र में अपूर्णता का भास अथवा अपने स्वीकृत भाव में विकल्प का होना आस्तिक-दृष्टि से अपना मूल्य घटाना है । स्वीकृति के अनुरूप प्रवृत्ति का न होना अथवा किसी भी वस्तु अवस्था एवं परिस्थिति की ओर आकृष्ट होना अथवा ऐसी प्रवृत्ति करना, जो किसी की पूर्ति का साधन न हो, व्यावहारिक दृष्टि से अपना मूल्य घटाना है ।

  यद्यपि शरण निर्बल का बल है, परन्तु जो प्राणी हार स्वीकार कर लेता है, उसके लिए शरण असम्भव हो जाता है। निर्बल के बल का अर्थ केवल इतना ही है कि शरणागत बिना किसी अन्य की सहायता के स्वयं केवल शरणागति-भाव से ही सफलता प्राप्त करता है । भाव करने में प्रत्येक प्राणी सर्वदा स्वतन्त्र है । जब शरणागत होने पर अहंता परिवर्तित हो जाती है, तब शरणागत का मूल्य संसार से बढ़ जाता है अर्थात् वह अपनी प्रसन्नता के लिए संगठन की ओर नहीं देखता । बस, उसी काल में शरणागत के जीवन में निर्वासना, निर्वैरता, निर्भयता, समता, मुदिता आदि सद्गुण स्वत: उत्पन्न होने लगते हैं । शरणागत किसी भी गुण को निमन्त्रण देकर बुलाता नहीं है और न सीखने का ही प्रयत्न करता है । अत: इस दृष्टि से अनेक विभागों में विभाजित अहंता को 'मैं उनका हूँ’, इस भाव में विलीन करना परम अनिवार्य है, जो शरणागति- भाव से सुगमतापूर्वक अपने-आप हो जाता है ।
क्रमशः-

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