Monday, 21 November 2016

भक्त का कर्तव्य भगवत रस का प्रचार

*भक्त  का  कर्तव्य  है  प्रचार  करना*

*सबसे  बड़ी  सेवा  प्रचार  कार्य  है;  वैष्णव  को  उसके  प्रचार  कार्य  द्वारा  पहचाना  जाता  है:*
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*"यदि  कोई  व्यक्ति  धार्मिक  सिद्धान्तों  के  अनुसार  किसी  बद्धजीव  को  या  बन्दी  व्यक्ति  को  छुड़ा  देता  है  तो  वह  स्वयं  भी  भगवान्  द्वारा  भवबन्धन  से  मुक्त  कर  दिया  जाता  है।"*
भगवान्  के  प्रति  जो  सबसे  बड़ी  सेवा  किसी  के  द्वारा  की  जा  सकती  है  वह  है  बद्धजीव  के  हृदय  में  भक्ति  को  संचारित  करने  का  प्रयास  करना  जिससे  बद्धजीव  बद्धजीवन  से  छुटकारा  पा  सके।   श्रील  भक्तिविनोद  ठाकुर  ने  कहा  है  कि  वैष्णव  को  उसके  प्रचार  कार्य  से----अर्थात्  जीव  को  उसके  नित्य  पद  के  विषय  में  आश्वस्त  बनाने  से----पहचाना  जाता  है।   ....जीव  की  नित्य  स्थिति  है  कि  वह  भगवान्  की  सेवा  करे।   अतएव  किसी  को  भवबन्धन  से  छूटने  में  सहायता  करने  का  अर्थ  है  मनुष्य  को  उसके  इस  सुप्त  ज्ञान  के  प्रति  जागरूक  बनाना  कि  वह  कृष्ण  का  नित्य  दास  है।
                    
                     *(चैतन्यचरितामृत मध्य २०.६)*

*वैष्णव  की  पहचान  यह  है  कि  उसने  कितने  वैष्णव  बनाये:*
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श्रील  भक्तिविनोद  ठाकुर  ने  कहा  है  कि  किसी  वैष्णव  के  पद  की  परीक्षा  यह  देखकर  की  जा  सकती  है  कि  वह  कितना  अच्छा  पारस  पत्थर  (स्पर्श मणि)  है----अर्थात्  यह  देखकर  कि  उसने  अपने  जीवन  में  कितने  वैष्णव  बनाये  हैं।   वैष्णव  को  पारस  पत्थर  होना  चाहिए  जिससे  वह  अपने  प्रचार  द्वारा  अन्यों  को  वैष्णव  बना  सके,  भले  ही  कोई  बहेलिया  जैसा  पतित  क्यों  न  हो।   ऐसे  अनेक  तथाकथित  बढ़े-चढ़े  भक्त  हैं  जो  अपने  निजी  लाभ  के  लिए  एकान्त  में  बैठे  रहते  हैं।   वे  प्रचार  करने  तथा  अन्यों  को  वैष्णव  बनाने  के  लिए  बाहर  नहीं  जाते;  अतएव  वे  निश्चय  ही  _स्पर्शमणि_  नहीं  कहे  जा  सकते।   _कनिष्ठ अधिकारी_  भक्तगण  अन्यों  को  वैष्णव  नहीं  बना  सकते,  किन्तु  _मध्यम अधिकारी_  वैष्णव  प्रचार  द्वारा  ऐसा  कर  सकता  है।
                
                  *(चैतन्यचरितामृत मध्य २४.२७७)*

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