Thursday, 24 November 2016

आत्मोद्धार - भागवत् धर्म सार

आत्मोद्धार

1. प्रायेण मनुजा लोके लोकतत्त्व-विचक्षणाः।
समुद्धरन्ति ह्यात्मानं आत्मनैवाशुभाशयात्॥

अर्थः
विश्वतत्त्व का परीक्षण करने में कुशल लोग साधारणतः स्वयं के यत्न से ही (अमंगल विषयों की) मलिन वासनाओं से अपना उद्धार कर लेते हैं।

2. आत्मनो गुरुरात्मैव पुरुषस्य विशेषतः।
यत् प्रत्यक्षानुमानाभ्यां श्रेयोऽसौ अनुविन्दते॥
अर्थः
विशेष बात यह है कि मनुष्य का गुरु उसकी आत्मा ही है, क्योंकि प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों प्रमाणों से वह अपना कल्याण कर लेता है।

3. पर-स्वभाव-कर्माणि न प्रशंसेन्न गर्हयेत्।
विश्वं ऐकात्मकं पश्यन् प्रकृत्या पुरुषेण च॥
अर्थः
क्या प्रकृति की दृष्टि से और क्या आत्मा की दृष्टि से विश्व एकात्मक है- यह जानकर मानव का कर्तव्य है कि वह दूसरे के स्वभाव या कर्म की स्तुति या निंदा न करे।

4. पर-स्वभाव-कर्माणि यः प्रशंसति निंदति।
स आशु भ्रश्यते स्वार्थात् असत्यभिनिवेशतः॥
अर्थः
जो पुरुष दूसरों के स्वभाव या कर्म को प्रशंसा या निंदा करता है, वह मिथ्या वस्तु के अभिमान के कारण अपने वास्तविक स्वार्थ (यानि आत्मार्थ) से शीघ्र ही भ्रष्ट हो जाता है।

5. श्रिया विभूत्याभिजनेन विद्यया
त्यागेन रूपेण बलेन कर्मणा।
जातस्मयेनांध-धियः सहेश्वरान्
सतोऽवमन्यन्ति हरिप्रियान् खलाः॥
अर्थः
संपत्ति, ऐश्वर्य, कुलीनता, विद्या, त्याग, रूप, बल और कर्म से गर्वित हो, जिनकी बुद्धि अंधी हो गयी है, वे दुष्ट लोग भगवान के प्रेमी भक्तों का और (स्वयं) ईश्वर का भी अपमान करते हैं।

6. क्षुत्-तृट्-त्रिकालगुण-मारुत-जैह्, व्य-शैश्न्यान्
अस्मान् अपारजलधीन् अतितीर्य केचित्।
क्रोधस्य यान्ति विफलस्य वशं, पदे गोर्
मज्जन्ति, दुश्चर-तपश्च वृथोत्सृजन्ति॥
अर्थः
भूख, प्यास, गर्मी, बरसात, हवा, आंधी-पानी, जिह्वा-सुख और रति-सुख जैसे दुस्तर समुद्रों को लाँघकर भी जो व्यर्थ ही क्रोध के अधीन होते हैं, वे मानो गाय के खुर से बनी क्षुद्र गड़ही में डूबते हैं और उनकी कठिन तपस्या व्यर्थ हो जाती है।

7. इंद्रियाणि जयन्त्याशु निराहारा मनीषिणः।
वर्जजयित्वा तु रसनं तन्निरन्नस्य वर्धते॥
अर्थः
विवेकी पुरुष यदि आहार रोक दे, तो रसनेंद्रिय (जिह्वा) को छोड़ अन्य इंद्रियों पर शीघ्र ही विजय पा सकते हैं। किंतु रसनेंद्रिय तो आहार त्यागने पर और भी अधिक बलवान होती है।

8. तावत् जितेंद्रियो न स्यात विजितान्येंद्रियः पुमान्।
न जयेद् रसनं यावत् जितं सर्व जिते रसे॥

अर्थः
जब तक रसनेंद्रिय जीती नहीं जाती, तब तक अन्य इंद्रियों को जीतने पर भी मनुष्य जितेंदिय नहीं होता। रसना के जीतने से ही सारी इंद्रियाँ जीत ली जाती हैं।

9. कृतादिषु प्रजा राजन्! कलौ इच्छन्ति संभवम्।
कलौ खलु भविष्यन्ति नारायण-परायणः॥
अर्थः
महाराज! कृत आदि युग के लोग कलियुग में जन्म लेना चाहते हैं, क्योंकि कलियुग में लोग सचमुच नारायण-परायण होने वाले हैं।
सत्यजीत "तृषित"

1 comment:

  1. Thank you for your explanations. I benefit from them. Please continue to do so for assisting seekers on a spiritual path.

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