Sunday, 6 December 2015

ईश्वर कौन है? कहाँ है? कैसा है?-

ईश्वर कौन है? कहाँ है? कैसा है?-

ईश्वर विश्वास पर ही मानव प्रगति का इतिहास टिका हुआ है । जब यह डगमगा जाता है तो व्यक्ति इधर-उधर हाथ पाँव फेंकता विक्षुब्द मनः स्थिति को प्राप्त होता दिखाई देता है । ईश्वर चेतना की वह शक्ति है जो ब्रह्माण्ड के भीतर और बाहर जो कुछ है, उस सब में संव्याप्त है । उसके अगणित क्रिया कलाप हैं जिनमें एक कार्य इस प्रकृति का-विश्व व्यवस्था का संचालन भी है । संचालक होते हुए भी वह दिखाई नहीं देता क्योंकि वह सर्वव्यापी सर्वनियन्ता है । इसी गुत्थी के कारण कि वह दिखाई क्यों नहीं देता, एक प्रश्न साधारण मानव के मन में उठता है- ईश्वर कौन है, कहाँ है, कैसा है ?
परम पूज्य गुरुदेव ने मानवी अस्तित्व से जुड़े इस सबसे अहम् प्रश्न, जो आस्तिकता की धुरी भी है, का जवाब देते हुए वाङ्मय के इस खण्ड में विज्ञान व शास्त्रों की कसौटी पर ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित किया है । मात्र स्रष्टि संचालन ही ईश्वर का काम नहीं है चूंकि हमारा संबंध उसके साथ इसी सीमा तक है, अपनी मान्यता यही है कि वह इसी क्रिया-प्रक्रिया में निरत रहता होगा, अतः उसे दिखाई भी देना चाहिए । मनुष्य की यह आकांक्षा एक बाल कौतुक ही कही जानी चाहिए क्योंकि अचिन्त्य, अगोचर, अगम्य परमात्मा-पर ब्रह्म-ब्राह्मी चेतना के रूप में अपने ऐश्वर्यशाली रूप में सारे ब्रह्माण्ड में, इको सिस्टम के कण-कण में संव्याप्त है ।

ईश्वर कैसा है व कौन है, यह जानने के लिए हमें उसे सबसे पहले आत्मविश्वास-सुदृढ़ आत्म-बल के रूप में अपने भीतर ही खोजना होगा । परमपूज्य गुरुदेव का ईश्वर सद्गुणों का-सत्प्रवृत्तियों का-श्रेष्ठताओं का समुच्चय है जो अपने अन्दर जिस परिमाण में जितना इन सद्गुणों को उतारता चला जाता है, वह उतना ही ईश्वरत्व से अभपूरति होता चला जाता है । ईश्वर तत्व की-आस्तिकता की यह परिभाषा अपने आप में अनूठी है एवं पूज्यवर की ही अपनी ऋषि प्रणीत शैली में लिखी गयी है । उनकी लालित्यपूर्ण भाषा में ईश्वर ''रसो वैसैः'' के रूप में भी विद्यमान है तथा वेदान्त के तत्त्वमसि, अयमात्मा ब्रह्म के रूप में भी । वयक्तित्व के स्तर को ''जीवो ब्रह्मैव नापरः'' की उक्ति के अनुसार परिष्कात कर परमहंस-स्थित प्रज्ञ की स्थिति प्राप्त कर आत्म साक्षात्कार कर लेना ही पूज्यवर के अनुसार ईश्वर दर्शन है-आत्म साक्षात्कार है-जीवन्मुक्त स्थिति है ।

एक जटिल तत्त्व दर्शन जिसमें नास्तिकता का प्रतिपादन करने वाले एक-एक तथ्य की काट की गयी है, को कैसे सरस बनाकर व्यक्ति को आस्तिकता मानने पर विवश कर दिया जाय, यह विज्ञ जन वाङ्मय के इस खण्ड को पढ़कर अनुभव कर सकते हैं । ईश्वर के संबंध में भ्रान्तियाँ भी कम नहीं हैं । बालबुद्धि के लोग कशाय कल्मशों को धोकर साधना के राज-मार्ग पर चलने को एक झंझट मानकर सस्ती पगडण्डी का मार्ग खोजते हैं । उन्हें वही शार्टकट पंसद आता है । वे सोचते हैं कि दृष्टिकोण को घटिया बनाए रखकर भी थोड़ा बहुत पूजा उपचार करके ईश्वर को प्रसन्न भी किया जा सकता है व ईश्वर विश्वास का दिखावा भी । जब कि ऐसा नहीं है । परमपूज्य गुरुदेव उपासना, साधना, आराधना की त्रिविध राह पर चल कर ही ईश्वर दर्शन संभव है यह समझाते हैं व तत्त्व-दर्शन के साथ-साथ व्यावहारिक समाधान भी देते हैं ।

ईश्वर कौन है, कैसा है-यह जान लेने पर, वह भी रोजमर्रा के उदाहरणों से विज्ञान सम्मत शैली द्वारा समझ लेने पर किसी को भी कोई संशय नहीं रह जाता कि आस्तिकता का तत्त्व दर्शन ही सही है । चार्वाकवादी नास्तिकता परक मान्यताएँ नहीं । यह इसलिए भी जरूरी है कि ईश्वर विश्वास यदि धरती पर नहीं होगा तो समाज में अनीति मूलक मान्यताओं, वर्जनाओं को लांघकर किये गए दुष्कर्म का ही बाहुल्य चारों ओर होगा, कर्मफल से फिर कोई डरेगा नहीं और चारों ओर नरपशु, नरकीटकों का या '' जिसकी लाठी उसकी भैंस का'' शासन नजर आएगा । अपने कर्मों के प्रति व्यक्ति सजग रहे, इसीलिए ईश्वर विश्वास जरूरी है । कर्मों के फल को उसी को अर्पण कर उसी के निमित्त मनुष्य कार्य करता रहे, यही ईश्वर की इच्छा है जो गीताकार ने भी समझाई है ।

ईश्वर शब्द बड़ा अभव्यंजनात्मक है । सारी स्रष्टिमें जिसका एश्वर्य छाया पड़ा हो, चारों ओर जिसका सौंदर्य दिखाई देता हो-स्रष्टिके हर कण में उसकी झाँकी देखी जा सकती हो, वह कितना ऐश्वर्यशाली होगा इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती । इसीलिए उसे अचिन्त्य बताया गया है । इस सृष्टि में यदि हर वस्तु का कोई निमित्त कारण है-कर्त्ता है, तो वह ईश्वर है । वह बाजीगर की तरह अपनी सारी कठपुतलियों को नचाया करता है व ऊपर से बैठकर तमाशा देखता रहता है । यही पर ब्रह्म-ब्राह्मी चेतना जिसे हर श्वांस में हर कार्य में, हर पल अनुभव किया जा सकता है-सही अर्थों में ईश्वर है । प्राणों के समुच्चय को जिस प्रकार महाप्राण कहते हैं, ऐसे ही आत्माओं के समुच्चय को-सर्वोच्च सर्वोत्काष्टरूप को-हम सब के परमपिता को परमात्मा कहते हैं, ईश्वर के संबंध में एक गूढ़ विवेचन का सरल सुबोध प्रतिपादन हर पाठक-परिजन को संतुष्टकर उसे सही अर्थों में आस्तिक बनाएगा, ऐसा हमारा विश्वास है॥
अत: हम इस निश्कर्ष पर पहुँ च ते है की प्रकृति (NATURE) ही ईश्वर है ! यानि हवा , पानी ,अग्नि , आकाश , धरती (पृथ्वी ) यह पंच भूत ही भगवान /ईश्वर है | सूर्य (SUN) इन पंचभुत का कारक / कर्ता और उद्द्गम का कारण है, यही वैज्ञानीक और अध्यात्मिक सत्य भी है इससे आगे शून्य है ! इस सत्य को स्वीकार करना ही आत्मबोध का जागरण होगा ! 

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