->>>भगवान वस्त्र
या बनाव सिंगार न
देखकर केवल मन देखते है ।
बाहर से सजा हुआ किन्तु
मन के मैले व्यक्ति की तरफ
वे देखते भी नही । हमेँ
भगवान से
प्रार्थना करना चाहिए ,
कि - नाथ हम आपकी शरण
है ।मुझ पापी को भवसागर
पार करा दीजिए ।
"मो सम कौन कुटिल खल
कामी ।
जिनु तनु
दियो ताहि बिसरायो ऐसे
नमकहरामी ।।"
और
"सूर कहै श्याम सुनो , शरण
है तिहारे , अबकी बार
पार करो नन्द के दुलारे
।।"
किन्तु जीव
बड़ा अभिमानी है। वह
ऐसी प्रार्थना करता ही नहीँ।
जीव खाली हाथ है, फिर
भी अकड़कर चलता है ।
'नहि विद्या बल वचन
चातुरी ।'
ईश्वर
की कृपा बिना मनुष्य के
पास क्या आ सकता है ?
यदि जीव ईश्वर की शरण
ग्रहण करे तो उसके
सभी पाप दूर हो सकते हैँ ।
क्योँकि प्रभु ने वचन
दिया है - "सनमुख होय
जीव मोहि जबहीँ ।
जन्मकोटि अघ नासहिं
तबहीँ ।।"
गीता मेँ भी कहा गया है -
'नमेभद्रः प्रणश्यति।'
जो मेरा हुआ है,
उसका कभी कोई विनाश
नही कर सकता ।
शुद्ध प्रेम मे
औरो को सुखी करने
की ही भावना होती है ।
तैत्तरीय उपनिषद के चार
सूत्र है -
मातृदेवो भव ।
पितृदेवो भव ।
आचार्यदेवो भव ।
अतिथिदेवो भव ।
मेँ एक महात्मा ने एक सूत्र
और जोड़ दिया है -
परस्परदेवो भव । लोग
कहते है , काल बिगड़
गया है ।
काल नहीँ, कलेजा (मन)
बिगड़ गया है , जिसके
कारण कलियुग आया हुआ है।
मनुष्य एक दूसरे को देवरुप
मानने लगेँ तो कलियुग
भी सतयुग बन सकता है।
>-<> जय श्रीकृष्ण <>
Tuesday, 15 December 2015
रहस्य भाव 69
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