आत्म-मंथन (मूक-सत्संग)
शब्द - भाषा की कुछ कठिनाई हो सकती है । परन्तु यें लेख कई भावनाओं का स्वतः उत्तर है । मनन के लिए ।
सत्संग परम् आवश्यक है । अध्यात्म की मूल इकाई है । या कहे कि प्रथम नींव ही है । वास्तव में सत्संग से प्राप्त क्या वस्तु है , जो उसे अनिवार्य करती है । वो वस्तु है , विवेक । सत्संग से विवेक होता है । परन्तु सत्संग से सीधे विवेक नहीँ होता । ऐसा होता तो सामूहिक सत्संग का समूह पर एक ही असर दिखाई देता । यहाँ सत्संग कुछ और घटा , जो विवेक तक गया । जिसे कह सकते है , आत्म-मंथन या चिंतन । जिससे विवेक पर से कालिख हटी और सामने आया । विवेक में भेद नही , विवेक में भेद हुआ तो सत्संग की धारा किन्हीं उथली पोखरों में चली गई । परन्तु वहाँ भी सत्संग की धारा असर दिखाएगी । और जिस भी भाव दीक्षा में घूमेंगी , लाभमय होगी । परन्तु विवेक के सागर में जाना परम् रस है ।
सत्संग और विवेक के बीच जो घटा वहीँ औषधि परम् सन्त शरणानन्द जी और अन्य ने "मूक सत्संग" कहा । मूक सत्संग यानि प्राप्त सत्संग से विवेक तक जाती नदी (आत्म-चिंतन) ही वास्तविक सत्संग है । विचार-विनिमय आदि का प्रयास वास्तविक सत्संग का सहयोगी अंग है , अर्थात् विचार-विनिमय से मूक सत्संग की समर्थता आती है । इस कारण मूक-सत्संग के साथ-साथ अपने ही द्वारा अपने सम्बन्ध में विचार-विनिमय अनिवार्य है । अहम् की निवृति होते ही मंगलमय विधान से स्वतः नित्ययोग की अभिव्यक्ति होती है । परम् प्रियतम से नित्य योग होना परम् लक्ष्य का पूर्ण कृपाप्रसाद है । यह रहस्य जब साधक निज विवेक के प्रकाश में अपने लक्ष्य के सम्बन्ध में विकल्प रहित होता है । जब तक विकल्प है , आवश्यकता अनिवार्यता ना बनेगी । लक्ष्य का निर्णय वास्तविक सर्वप्रथम प्रयास है । आज समाज तो बहुत है परन्तु लक्ष्य नहीँ , अथवा लक्ष्य को समुदाय बना लिया जबकि आध्यात्मिकता समुदाय के विपरीत धरातल पर घटती है । अतः निज लक्ष्य हो , लक्ष्य की ललक ही स्वतन्त्र सत्य पथ देती है । अतः लक्ष्य हो , पथ हो , ललक हो ।
मूक सत्संग को अभ्यास नही , समस्त साधनो की भूमि कहा गया है । मूक सत्संग किया नही जाता , आवश्यक कार्य के अंत में स्वतः होता है । जो स्वतः होता है , उसमें अपनी आस्था , श्रद्धा और विश्वास हो , तो बड़ी ही सुगमतापूर्वक साधन की अभिव्यक्ति तथा असाधन का नाश हो जाता है । किया हुआ साधन साधक के अहंभाव को ज्यों का त्यों सुरक्षित रखता है और यहीं आज सभी पथिक अटक जाते है । कारण साधन रूपी अहम् । जो एकरूप ना करा भेद और भिन्नता का प्रतीक है । सभी पथ परम् से अभेद और अभिन्नता पर रसमय होते है , जहाँ भेद हो और भिन्नता हो , वहाँ किये साधन के अहम् से स्व शेष रहता है और परम् की अनुभूति नहीँ हो पाती । इस स्थिति में सद्गुरु संग हो तो साधन होकर असाधन भाव से आगे बढ़ा जाए । अहम् ने ही नित्य प्राप्त परम् रस से विमुख किया है और साधको को गुण और दोष के अभिमान में बाँध दिया है । गुणों के अभिमान से दोष पोषित होते है । और स्वदोषों पर दृष्टि जाने से गुण , सत्संग यहीँ कारगर उपाय करता है । और स्व में नाना प्रकार के दोष दिखते है । और मैल को हटाने के लिये अन्तः चित् स्नान के लिए व्याकुल होता है ।
जब साधक अपने में कोई विशेषता नहीँ पाता , तब अधीर हो , वास्तविकता के लिए परम् व्याकुल होता है । और व्याकुलता की अग्नि समस्त दोषों को भस्मीभूत करने में सर्वदा समर्थ है । व्याकुलता की जागृति प्राकृतिक विकास क्रम है । क्योंकि प्यास से जल की सिद्धि है , जल हो प्यास नहीँ तो जल के होने पर भी जल के होने का महत्व नहीँ । प्यास की गहराई जल की आवश्यकता और स्वाद दोनों को बढ़ाती है । व्याकुलता सहज , स्वभाविक रूप से साधक को सतपथ पर अग्रसर करती है । व्याकुलता के बिना कभी किसी का विकास नहीँ हुआ । वास्तविकता से निराश न होने पर अर्थात् जगत स्वप्न है और भगवत् लालसा सच , यें वास्तविकता है (जड़ रूपी देह संसार से निवृति और नित्य चेतन ईश्वर की तीव्र लालसा आत्मीयता से ) । इस वास्तविकता से निराश न होने पर व्याकुलता स्वतः जाग्रत होती है । क्योंकि चेतना जब स्वयं को जड़ संसार का ना मान अपने परम् चेतनत्व की चाह करती है तो यहाँ जाल में फंसे जीव् सी स्थिति अनुभव होती है और व्याकुलता बढ़ती है। यहाँ की चार दीवारी में दम घुटता है तब ही प्रियतम् के घर से अपना पन होने से व्याकुलता तीव्र होती है । व्याकुलता मिटाई भी नहीँ जा सकती अपितु लक्ष्य से अभिन्न होने पर स्वतः अगाध प्रियता में परिणत होती है । व्याकुलता प्रियतम् से मिल प्रेम हो जाती है , परन्तु स्व का अभाव ही अब इस प्रेम रूपी व्याकुलता को नित्य बढ़ाता है । नित्यवर्धमानं करता है । यहाँ अब बहुत से प्रेमी और साधना के पथ से पहुँचे सिद्ध तृप्त दिखाई देते है । प्रेम में नित्य रसपान है परन्तु तृप्ति नहीँ क्योंकि प्रेम अभेद -अभिन्नता में घटा जो कि अहम् शून्यता पर आई । तृप्ति में एक से दो होना है , और स्व की घोषणा भी । स्व नही है तभी तो रस भी है पीया भी जा रहा है , आनन्द-रस भी मिल रहा है । पर स्व ना होने से और स्व के स्व में अभाव से रस की लालसा बढ़ने लगती है । इसलिए ही रसपान में मूकता घटती है । क्योंकि अनुभूति में शरण की भावना है और अनुभव में स्व की घोषणा । इस दृष्टि में व्याकुलता सफलता की कुञ्जी है और यें ही नित्य 'तृषित' होने का रहस्य भी है । पीकर भी प्यास जहाँ नित्य है । ज्यों ज्यों साधक में नित नव उत्साह और उत्कंठा सबल होती जाती है , त्यों-त्यों व्याकुलता स्वतः तीव्र होती जाती है । व्याकुलता अहंकार के नाश में समर्थ है । अहंकार ने ही साधक को रसमय आनन्द प्राप्ति से अलग कर बाँध दिया है । इस परिच्छिन्नता से ही भेद और भिन्नता पोषित होती है । अर्थात् जब तक तुम हो , ईश्वर नही । जब ईश्वर तो तुम नहीँ । और जब तुम भी हो , ईश्वर भी हो तब प्रेम लीला मिलन होगा जिसके लिए कोई शब्द ना जुटेंगे । क्योंकि तब या तो ईश्वर प्राकृत होंगे जो अन्य के लिये सहज विश्वास की बात ना होगी । या जीव अप्राकृत सुख रस में होगा और वहां की स्थिति को शब्द देने की भाषा सही मायने में उपलब्ध नहीँ होगी । शब्द जुटे भी तो किंचित् स्मृतियों की भगवत्कृपा प्रसादी से । सत्यजीत "तृषित" ।यहाँ तक मनन करें तब ही भावरस से आगे भी चर्चा जारी रहे ,इस भाव से जय जय श्यामाश्याम ।
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